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प्रोषधोपवासके अतिचार
प्रोषधोपवासके प्रतिचार
ग्रहण-विसर्गाऽऽस्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादराऽस्मरणे ।
यत्प्रोषधोपवास- व्यतिलंघन - पंचकं तदिदम् ॥२०॥११०॥
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' (उपवास के दिन भूख-प्यास से पीड़ित होकर शीघ्रतादिवश) जीवजन्तुकी देख-भाल किये बिना और विना योग्य रीतिसे झाड़े पोंछे जा किसी चीजका ग्रहण करना - उठाना पकड़ना है— छोड़ना धरना है, आसन बिछौना करना है तथा उपवास सम्बन्धी क्रियाओं के अनुष्ठानमें अनादर करना है और एकताका न होना अथवा उपवास विधिको ठीक बाद न रखना है: यह सब प्रवासका अतिचार-पंचक है-- इस व्रत के पाँच अतिचारोंका रूप है।
कारिका ११० ]
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व्याख्या -- यहाँ 'अदृटमष्टानि' पद ' ग्रहण - विसर्गा-ऽऽस्तरणानि ' पदका विशेषण है, उसके प्रत्येक अंगसे सम्बन्ध रखता है और उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जिसके लिये तत्त्वार्थसूत्र में 'अप्रत्य वेक्षित' और 'अप्रमाजित' शब्दों का प्रयोग हुआ है 'अदृष्ट'
प्रत्यवेक्षित (चक्षुसे अनवलोकित) का और 'अमृष्ट' अप्रमाजित (मृदु उपकरण से प्रमार्जन - रहित) का वाचक है । उपवासके दिन किसी भी वस्तु के ग्रहण - त्यागादिके अवसर पर सबसे पहले यह देखने की जरूरत है कि उस ग्रहरण - त्यागके द्वारा किसी जीव को बाधा तो नहीं पहुँचती । यदि किसी जीवको बाधा पहुँचना संभव हो तो उसे कोमल उपकरण द्वारा उस स्थान से अलग कर देना चाहिये । यही सावधानी रखनेकी इस व्रत के व्रतीके लिये जरूरत है। बाकी 'अनादर' अनुत्साहका और 'अस्मरण' अनैकामताका वाचक है; इन दोनोंको अवसर न मिले और उपवासका सब कार्य उत्साह तथा एकाग्रताके साथ सम्पन्न होता रहे, इसका यथाशक्य पूरा यत्न होना चाहिये ।