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समीचीन-धर्मशास्त्र
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है। इन सभी कर्तव्योंको ठीक पालनेके लिये निद्रा तधा आलस्यपर विजय प्राप्त करनेकी बड़ी जरूरत है उसीके लिये 'अतन्द्रालु' विशेषणका प्रयोग किया गया है। अतः उस पर सदैव दृष्टि रखनी चाहिये। कचतुराहार-विसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद्भुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥१६॥१०६॥
'चार प्रकारके आहार-त्यागका नाम उपवास है, एक वारका भोजन 'प्रोषध' कहलाता है और उपवास करके जो आरम्भका आचरण करना है उसे 'प्रोषधोपवास' कहते हैं।'
व्याख्या-यहाँ 'प्रोषधोपवासः' पदका विश्लेषण करते हुए उसके 'प्रोषध' और 'उपवास' नामके दोनों अंगोंका अलग अलग लक्षण निर्दिष्ट किया गया है और फिर समूचे पदका जुदा ही लक्षण दिया है । इस लक्षण-निर्देशमें 'प्रोपध' शब्दको पर्वपर्यायी न बतलाकर जो एक भुक्तिके अर्थमें ग्रहण किया गया है वह बहुत कुछ चिन्तनीय जान पड़ता हैं।
* इस कारिकाकी स्थिति यहाँ संदिग्ध जान पड़ती है; क्योंकि प्रोषधोपवासका लक्षण कारिका नं० १०६ में दिया जा चुका है और उसके बाद दो कारिकाओंमें उपवास-दिनके त्याज्य तथा विधेयरूप कर्तव्योंका भी निर्देश हो चुका है । तब इस कारिकाका प्रथम तो कुछ प्रसंग नहीं रहता, दूसरे यह कारिका उक्त पूर्ववर्तिनी कारिकाके विरुद्ध पड़ती है, इतना ही नहीं बल्कि श्रावकके चतुर्थपदका निर्देश करनेवाली जो उत्तरवर्तिनी कारिका नं० १४० है उसके भी विरुद्ध जाती है और इस तरह पूर्वापर-विरोधको लिये हुए है। ऐसी स्थितिमें यह ग्रन्थका अंग होनेमें भारी सन्देह उत्पन्न करती है। इस विषयके विशेष विचार एवं ऊहापोहके लिये प्रस्तावनाको देखना चाहिये।