Book Title: Samichin Dharmshastra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 305
________________ १५० समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० ५ करता है कि वह दान तथा उपग्रह-उपकारादिका अन्य कार्य सिकी लौकिक लाभादिकी दृष्टिको लक्ष्यमें लेकर अथवा किसीके दबाव या आदेशादिकी मजबूरीके वश होकर न होना चाहिये-वैसा होनेसे वह वैयावृत्त्यकी कोटिसे निकल जायगा। वैयावृत्त्यकी साधनाके लिये पात्रके गुणोंमें शुद्ध अनुरागका होना आवश्यक है । रहा 'अनपेक्षितोपचारोपक्रियं नामका पद, जो कि दानके विशेषणरूपमें प्रयुक्त हुआ है, इस व्रतकी आत्मा पर और भी विशद प्रकाश डालता है और इस बातको स्पष्ट घोषित करता है कि इस वैयावृत्त्यव्रतके व्रती-द्वारा दानादिक रूपमें जो भी सेवाकार्य किया जाय उसके बदलेमें अपने किसी लौकिक उपकार या उपचारकी कोई अपेक्षा न रखनी चाहिये-वैसी अपेक्षा रखकर किया गया सेवा-कार्य वैयावृत्यमें परिगणित नहीं होगा। यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि ग्रन्थकारमहोदयने चतुर्थशिक्षाव्रतको मात्र ‘अतिथिसंविभाग' के रूपमें न रख कर उसे जो 'वैयावृत्य' का रूप दिया है वह अपना खास महत्व रखता है और उसमें कितनी ही ऐसी विशेषताओंका समावेश हो जाता है जिनका ग्रहण मात्र अतिथिसंविभागनामके अन्तर्गत नहीं बनता; जैसा कि इस विषयकी दूसरी लक्षणात्मिका कारिका (११२) से प्रकट है, जिसमें दानके अतिरिक्त दूसरे सब प्रकारके उपग्रह-उपकारादिको समाविष्ट किया गया है और इसीसे उसमें देवाधिदेवके उस पूजनका भी समावेश हो जाता है जो दानके कथनानन्तर इस ग्रन्थमें आगे निर्दिष्ट हुआ है और जो इस व्रतका 'अतिथिसंविभाग' नामकरण करने वाले दूसरे ग्रन्थोंमें नहीं पाया जाता। दान, दाता और पात्र नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । । अपसूनारम्भाणामायणमिष्यते दानम् ॥२३॥११३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337