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समीचीन धर्मशाख
वैयावृत्य- लक्षण दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाव गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥२१॥ १११ ॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुण- रागात् । बैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥२२॥११२॥
'सम्यग्दर्शनादि गुणों के निधि गृहत्यागी तपस्वीको, बदले में किसी उपचार और उपकारकी अपेक्षा न रखकर, धर्मके निमित्त यथाविभव – विधिद्रव्यादिकी अपनी शक्ति - सम्पत्तिके अनुरूप — जो दान देना है उसका नाम ' वैयावृत्य' है ।'
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[ श्र० ५
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( केवल दान ही नहीं किन्तु ) गुणानुराग से संयमियोंकी आपत्तियोंको जो दूर करना है, उनके चरणोंको दबाना है तथा और भी उनका जो कुछ उपग्रह हैं -- उपकार, साहाय्य सहयोग अथवा उनके अनुकूल वर्तन है - वह सब भी ' वैयावृत्य' कहा जाता है ।'
व्याख्या - यहाँ जिनके प्रति दानादिके व्यवहारको 'वैयावृत्य' कहा गया है वे प्रधानतः सम्यग्दर्शनादि गुणोंके निधिस्वरूप वे सकलसंयमी, अगृही तपस्वी हैं जो विषयवासना तथा आशातृष्णा के चक्कर में न फँसकर इन्द्रिय-विषयोंकी वाँका तकके वशवर्ती नहीं होते, आरम्भ तथा परिग्रहसे विरक्त रहते हैं और सदा ज्ञानध्यान एवं तपमें लीन रहा करते हैं; जैसा कि इसी शास्त्रकी १०वीं कारिका में दिये तपस्वी के लक्षणसे प्रकट है । और गौणतासे उनमें उन तपस्वियोंका भी समावेश है जो भले ही पूर्णतः गृहत्यागी न हों किन्तु गृहवाससे उदास रहते हों, भले ही आरम्भ - परिग्रहसे पूरे विरक्त न हों किन्तु कृषि-वाणिज्य तथा मिलोंके संचालनादिजैसा कोई बड़ा आरम्भ तथा ऐसे महारम्भोंमें नौकरीका कार्य न करते हों और प्रायः आवश्यकता की पूर्ति - जितना परिग्रह रखते हों। साथ ही, विषयों में आसक्त न होकर जो संयम के साथ सादा