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कारिका ११६] वैयावृत्त्य-लक्षण
१५५ देवपूजाका विधान देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःख निर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादाढतो नित्यम् २६॥११६ ___ ( वयावृत्त्य नामक शिक्षाव्रतका अनुष्ठान करनेवाले श्रावकको ) देवाधिदेव (श्रीअर्हन्तदेव) के चरणोंमें जो कि वांछित फलको देने वाले और काम (इच्छा तथा मदन) को भस्म करने वाले है, नित्य ही आदर-सत्कारके साथ पूजा-परिचर्याको वृद्धिंगत करना चाहिये, जो कि सब दुःखोंको हरनेवाली है।। ___ व्याख्या-यहाँ वैयावृत्त्य नामके शिक्षाव्रतमे देवाधिदेव श्रीअर्हन्तदेवकी नित्य पूजा-सेवाका भी समावेश किया गया है । और उसे सब दुःखोंकी हरनेवाली बतलाया गया है । उसके लिए शर्त यह है कि वह आदरके साथ (पूर्णतः भक्तिभाव-पूर्वक) चरणों में अर्पितचित्त होकर की जानी चाहिये-ऐसा नहीं कि विना आदर-उत्साहके मात्र नियमपूर्तिके रूपमें, लोकाचारकी दृष्टिसे, मजबूरीसे अथवा आजीविकाके साधनरूपमें उसे किया जाय । तभी वह उक्त फलको फलती है।
वैय्यावृत्त्यके, दानकी दृष्टिसे, जो चार भेद किये गये हैं उनमें इस पूजा-परिचर्याका समावेश नहीं होता। दान और पूजन दो विषय ही अलग-अलग है-गृहस्थोंकी पडावश्यक क्रियाओं में भी वे अलग-अलग रूपसे वर्णित है। इसीसे आचार्य प्रभाचन्द्रने टीकामें दानके प्रकरणको समाप्त करते हुए प्रस्तुत कारिकाके पूर्व में जो निम्न प्रस्तावना-वाक्य दिया है उसमें यह स्पष्ट बतलाया है कि 'वैय्यावृत्त्यका अनुष्ठान करते हुए जैसे चार प्रकारका दान देना चाहिये वैसे पूजाविधान भी करना चाहिये___“यथा वैयावृत्त्यं विदधता चतुर्विधं दानं दातव्यं तथा पूजाविधानमपि कर्तव्यमित्याह"