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कारिका ११५-११६] वैयावृत्त्य-लक्षण साधु इन गुणोंसे रहित हैं, कषायोंसे पीड़ित हैं और दम्भादिकसे युक्त हैं उनकी वैयावृत्ति अथवा भक्ति ऐसे फलको नहीं फलती। वे तो पत्थरकी नौकाके समान होते हैं-आप डूबते और साथमें दूसरोंको भी ले डूबते हैं। उच्चैगोत्रं प्रणते गो दानादुपासनात्पूजा । भक्तः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ॥२५॥११५॥
'सच्चे तपोनिधि साधुओंमें प्रणामके व्यवहारसे उच्चगोत्र की, दानके विनियोगसे इन्द्रिय-भोगकी, उपासनाकी योजनासे पूजा-प्रतिष्ठाकी, भक्तिके प्रयोगसे सुन्दर रूपकी और स्तुतिकी सृष्टिसे यश कीर्तिकी सम्प्राप्ति होती है।' ____ व्याख्या-यहाँ 'तपोनिधिषु पदके द्वारा भी उन्हीं सच्चे तपस्वियोंका ग्रहण है जिनका उल्लेख पिछली कारिकाकी व्याख्यामें किया गया है और जिनके लिये चौथी कारिकामें 'परमार्थ विशेषण भी लगाया गया है । अतः इस कारिकामें वर्णित फल उन्हींके प्रणामादिसे सम्बन्ध रखता है-दूसरे तपस्वियोंके नहीं। क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले । फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ॥२६॥११६।।
'सत्पात्रको दिया हुआ देहधारियोंका थोड़ा भी दान, सुक्षेत्रमें बोए हुए वटबीजके समान, उन्हें समय पर ( भोगोपभोगादिकी प्रचुर सामग्रीरूप) छायाविभवको लिये हुए बहुत इष्ट फलको फलता है।'
व्याख्या-यहाँ प्रणामादि-जैसे छोटेसे भी कार्यका बहुत बड़ा फल कैसे होता है उसे वड़के बीजके उदाहरण-द्वारा स्पष्ट करके बतलाया गया है । और इसलिए पिछली कारिकामें जिस कार्यका जो फल निर्दिष्ट हुआ है उसमें सन्देहके लिए अवकाश नहीं। सत्पात्र-गत होने पर उन कार्यों में वैसे ही फलकी शक्ति है।