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समीचीन धर्मशास्त्र
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तदेव क्षुधा, तृषा तथा रोग-शोकादिकसे विमुक्त होते हैं -भोजनादिक नहीं लेते, इससे उनके प्रति श्रहारादिके दानका व्यवहार बनता भी नहीं । और इसलिए देवाधिदेवके पूजनको दान समझना समुचित प्रतीत नहीं होता ।
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यहाँ पूजाके किसी रूपविशेषका निर्देश नहीं किया गया । पूजाका सर्वथा कोई एक रूप बनता भी नहीं। पूजा पूज्यके प्रति आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिका नाम है और आदर-सत्कारको अपनी अपनी रुचि, शक्ति, भक्ति एवं परिस्थितिके अनुसार अनेक प्रकारसे व्यक्त किया जाता है, इसीसे पूजाका कोई सर्वथा एक रूप नहीं रहता । पूजाका सबसे अच्छा एवं श्रेष्ठरूप पूज्यके अनुकूल वर्तन है— उसके गुणोंका अनुसरण है । इसीको पहला स्थान प्राप्त है ।
दूसरा स्थान तदनुकूलवर्तनकी ओर लेजानेवाले स्तवनादिकका है, जिनके द्वारा पूज्यके पुण्यगुरणोंका स्मरण करते हुए अपनेको पापोंसे सुरक्षित रखकर पवित्र किया जाता है और इस तरह पूज्य साक्षात् सामने विद्यमान न होते हुए भी अपना श्रेयोमार्ग सुलभ किया जाता है । पूजाके ये ही दो रूप ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्रको सबसे अधिक इष्ट रहे हैं। उन्होंने अपनेको
* नाऽर्थः क्षुत्तृडविनाशाद्विविध रसयुर्त रन्नपानै रशुच्यानास्पृष्टेर्गन्ध - माल्यैर्न हि मृदुशयनै ग्लानिनिद्राद्यभावात् । आतंकातरभावे तदुपशमनसभेषजानयंतावद्दीपाऽनर्थक्यवद्धा व्यपगततिमिरे दृश्यमाने समस्ते ।
-- पूज्यपादाचार्य-सिद्धभक्ति:
+ जैसा कि स्वयम्भू स्तोत्र के निम्न वाक्योंसे प्रकट है :
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तरे । तथापि ते पुण्यगुरणस्मृतिर्न: पुनाति चित्तं दुरिताऽञ्जनेभ्यः ॥५७॥