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कारिका ११३]
वैयावृत्त्य-लक्षण
___(दातारके) सप्तगुणोंसे युक्त तथा (बाह्य) शुद्धि से सम्पन्न गृहस्थके द्वारा नवपुण्यों-पुण्यकारणोंके साथ जो सूनाओं तथा प्रारम्भोंसे रहित साधुजनोंकी प्रतिपत्ति है-उनके प्रति आदर-सत्कार-पूर्वक आहारादिके विनियोगका व्यवहार है-वह दान माना जाता है।'
व्याख्या-जिस दानको १११वीं कारिकामें वैयावृत्त्य बतलाया है उसके स्वामी, साधनों तथा पात्रोंका इस कारिकामें कुछ विशेष रूपसे निर्देश किया है । दानके स्वामी दातारके विषयमें लिखा है कि वह सप्तगुणोंसे युक्त होना चाहिये । दातारके मात गुण श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञानता, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति हैं, ऐसा दूसरे ग्रन्थोंसे जाना जाता है । इन गुणोंसे दातारकी अन्तःशुद्धि होती है और इसलिये दूसरे 'शुद्धेन' पदसे बाह्यशुद्धिका अभिप्राय है, जो हस्तपादादि तथा वस्त्रादिकी शुद्धि जान पड़ती है । दानके साधनों-विधिविधानोंके रूपमें जिन नव पुण्योंका-पुण्योपार्जनके हेतुओंका-यहाँ उल्लेख है वे १ प्रतिग्रहण, २ उच्चस्थापन, ३ पादप्रक्षालन, ४ अर्चन, ५ प्रणाम, ६ मनःशुद्धि, ७ वचनशुद्धि, ८ कायशुद्धि और एपण (भोजन) शुद्धिके नामसे अन्यत्र उल्लिखित मिलते हैं।।
दानके पात्रोंके विषयमें यह खास तौरसे उल्लेख किया गया है कि वे सूनाओं तथा आरम्भोंसे रहित होने चाहिये । आरम्भोंमें सेवा, कृषि, वाणिज्यादि शामिल हैं; जैसा कि इसी प्रन्थकी * श्रद्धा तुष्टिभक्तिविज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः । यस्यते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।
-टीकामें प्रभाचन्द्र-द्वारा उद्धृत पिडिगहणमुच्चठाणं पादोदकमच्चणं च पणमं च । मणवयणकायसुद्धी एसरणसुद्धी य गवविहं पुण्णं ।
-टीकामें प्रभाचन्द्र-द्वारा उद्धत