________________
१४४ समीचीन-धर्मशास्त्र
[अ०५ ___ 'उपवासके दिन हिंसादिक पांच पापोंका, अलंक्रियाकावस्त्रालंकारोंसे शरीरकी सजावटका-, कृष्यादि आरम्भोंका, चन्दन इत्र फुलेल आदि गन्धद्रव्योंके लेपनादिका, पुष्पोंके ( तूं घने-धारणादिरूप) सेवनका, स्नानका, आँखोंमें अञ्जन आँजनेका और नाकमें दवाई डालकर नस्य लेने अथवा सूंघने का त्याग करना चाहिये ।' ___ व्याख्या-इस कारिकामें उपवासके दिन अथवा समयमें 'क्या नहीं करना' और अगली कारिकामें 'क्या करना चाहिये इन दोनोंके द्वारा उपवासकी दृष्टि तथा उसकी चर्याको स्पष्ट किया गया है और उनसे यह साफ जाना जाता है कि प्रस्तुत उपवास धार्मिक दृष्टिको लिए हुए है। इसीसे इस कारिकामें पञ्च पापोंके त्यागका प्रमुख उल्लेख है, उसे पहला स्थान दिया गया है और अगली कारिकामें धर्मामृतको बड़ी उत्सुकताके साथ पीने-पिलानेकी बातको प्रधानता दी गई है। और इसलिये जो उपवास इस दृष्टि से न किये जाकर किसी दूसरी लौकिक दृष्टि को लेकर किये जाते हैं-जैसे स्वास्थ्यके लिये लंघनादिक अथवा अपनी बातको किसी दूसरेसे मनवानेके लिये सत्याग्रहके रूपमें प्रचलित अनशनादिक-ये इस उपवासकी कोटि में नहीं आते।
उपवास-दिवसका विशेष कर्तव्य धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिवतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञान-ध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ॥१८॥१०॥ _ 'उपवास करनेवालेको चाहिये कि वह उपवासके दिन निद्रा तथा आलस्यसे रहित हुआ अति उल्कण्ठाके साथ-मात्र दूसरोंके अनुरोधवश नहीं-धर्मामृतको कानोंसे पीवे-धर्मके विशेषज्ञोंसे धर्म को सुने तथा दूसरोंको-जो धर्मके स्वरूपसे अनभिज्ञ हों या धर्मकी ठीक जानकारी न रखते हों उन्हें-धर्मामृत पिलावे--धर्मचर्चा या शास्त्र