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कारिका १०८ ] उपवासदिवसका विशेष कर्तव्य
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सुनावे- तथा ज्ञान और ध्यानमें तत्पर होवे - शास्त्रस्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जनमें मनको लगावे अथवा द्वादशानुप्रेक्षाके चिन्तनमें उपयोगको रमावे और धर्मंध्यान नामके अभ्यन्तर तपश्चरण में लीन रहे । '
व्याख्या—उपवास-दिनके विधेय कर्तव्यका निर्देश करते हुए यहाँ अमृतको पीने-पिलानेवाली बात कही गई है, जब कि उपवासमें चारों प्रकारके आहारका त्याग होनेसे उसमें पीना (पानपेय) भी आजाता है और वह भी त्याज्य ठहरता है, परन्तु यहाँ जिस पीनेका विधान है वह मुखसे पीना नहीं है, बल्कि कानोंसे पीना है और जिस अमृतका पीना है वह दुग्ध-दधिघृतादिके रूपमें नहीं बल्कि धर्म के रूपमें है— वही धर्म जो समयग्दर्शन -ज्ञान- चारित्ररूपसे इस शास्त्रमें विवक्षित है उसे ही अमृत कहा गया है और इसलिये उस अमृतका पीना त्याज्य नहीं है । उसे तो बड़ी उत्सुकताके साथ पीना चाहिये और दूसरोंको भी पिलाना चाहिये। जिस तृष्णाका अन्यत्र निषेध है उसका धर्मामृतके पीने-पिलाने में निषेध नहीं है किन्तु विधान है, उसीका सूचक 'सतृष्णः ' पद कारिकामें पड़ा हुआ है जो कि उपवास करनेवालेका विशेषण है । सद्धर्म वास्तव में सच्चा अमृत है जो जीवात्माको स्थायी सन्तुष्टि एवं शान्ति प्रदान करता हुआ उसे अमृतत्व अर्थात् सदा के लिये अमरत्व या मुक्ति प्रदान कराता है ।
धर्मामृतको पीने-पिलाने के अलावा यहाँ उपवासके दिन एक दूसरे खास कर्तव्यका और निर्देश किया गया है और वह है 'ज्ञान-ध्यानमें तत्पर रहना' अर्थात् उपवासका दिन ज्ञान और ध्यानके अभ्यासकी प्रधानताको लिए हुए विताना चाहिये-उस दिन सविशेष रूप से स्वाध्याय तथा आत्मध्यानरूप सामायिककी साधनामें उद्यत रहना चाहिये-सामायिकका कार्य उपवास तथा एक मुक्तके दिन अच्छा बनता है यह पहले बतलाया जा चुका