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समीचीन धर्मशास्त्र
[ श्र० ५
लिए अगली कारिकाओं में सुझाई हुई बातों पर भी पूरा ध्यान रखना चाहिये। साथ ही यह खूब समझ लेना चाहिये कि सामायिक केवल जाप जपना नहीं है-जैसा कि बहुधा समझा जाता है, दोनोंमें अन्तर है और वह सामायिक तथा प्रतिक्रमणपाठों में पाए जानेवाले सामायिकव्रतके इस लक्षणात्मक पद्यसे और भी स्पष्ट हो जाता है:
"समता सर्वभूतेषु संयमः शुभ- भावना । आर्त-रौद्र-परित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥”
"
इसमें सामायिकव्रत उसे बतलाया गया है जिसके आचारमें सब प्राणियोंपर समता भाव हो— किसीके प्रति राग-द्वेषका वैषम्य न रहे - इन्द्रियसंयम तथा प्राणिसंयम के रूपमें संयमका पूरा पालन हो, सदा शुभ भावनाएँ बनी रहेंअशुभ भावनाको जरा भी अवसर न मिले - और आर्त्त तथा रौद्र नामके दोनों खोटे ध्यानोंका परित्याग हो । इस आचारको लिये हुए यदि जाप जपा जाता है और विकसित आत्माओंके स्मरणोंसे अपनेको विकासोन्मुख बनाया जाता है तो वह भी सामायिक में परिगणित है ।
सामायिक - समयका कर्त्तव्य
शीतोष्ण दंशमशकं परीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुर्वीरन्न चलयोगाः ॥ १३ ॥१०३॥
'सामायिकको प्राप्त हुए-सामायिक मांडकर स्थित हुए-गृहस्थोंको चाहिये कि वे ( सामायिक - कालमें ) सर्दी-गर्मी डांस-मच्छर आदिके रूपमें जो भी परीषह उपस्थित हो उसको, तथा जो उप
+ 'मशक' इति पाठान्तरम् ।