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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०५ विक्षेप न पड़े। एक तीसरा महत्वपूर्ण पद यहाँ और भी है और वह है 'प्रसन्नधिया', जो इस बातको सूचित करता है कि सामायिकका यह कार्य प्रसन्नचित्त होकर बड़े उत्साहके साथ करना चाहिये-ऐसा नहीं कि गिरे मनसे मात्र नियम पूरा करनेकी दृष्टिको लेकर उसे किया जाय, उससे कोई लाभ नहीं होगा, उल्टा अनादरका दोष लगजायगा।
___ सामायिककी दृढताके साधन व्यापार-बैमनस्याद्विनिवृत्यामन्तरात्मविनिवृत्या । सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैकभुक्ते । वा ॥१०॥१०॥
'उपवास तथा एकाशनके दिन व्यापार और वैमनस्यसे विनिवृत्ति धारण कर आरम्भादिजन्य शरीरादिकी चेष्टा और मनकी व्यग्रताको दूर करके अन्तर्जल्पादि रूप संकल्प-विकल्पके त्यागद्वारा सामायिकको दृढ करना चाहिये। __व्याख्या-यहाँ सामायिककी दृढताके कारणोंको स्पष्ट किया गया है। सामायिकमें दृढता तभी लाई जा सकती है जब काय तथा वचनका व्यापार बन्द हो, चित्तकी व्यग्रता-कलुषता मिटे
और अन्तरात्मामें अनेक प्रकारके संकल्प-विकल्प उठकर जो अन्तर्जल्प होता रहता है-भीतर ही भीतर कुछ बातचीत चला करती है-वह दूर होवे। अतः इस सब साधन-सामग्रीको जुटानेका पूरा यत्न होना चाहिये। इसके लिये उपवासका दिन ज्यादा अच्छा है और दूसरे स्थानपर एक बार भोजनका दिन है।
प्रतिदिन सामायिककी उपयोगिता सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम् । व्रतपंचक-परिपूरण-कारणमवधानयुक्तेन ॥११॥१०१॥
+ 'चैकभक्ते' इति पाठान्तरम् ।