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सामायिक के योग्य स्थानादि
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कारिका ६६] मन-वचन-काय और कृत-कारित अनुमोदना के द्वारा — सर्वथा त्याग है वही पूर्व कारिकामें वर्णित सामायिक शिक्षाव्रतका लक्ष्य है ।
यहाँ केशबन्धादिक रूपमें जिस आचारका उल्लेख है वह सामायिककी कालमर्यादाके प्रकारोंका सूचक है; जैसे पद्मासन लगाकर बैठना जब तक असह्य या आकुलताजनक न हो जाय तब तक उसे नहीं छोड़ा जायगा और इसलिये सद्यादि होने पर जब उसे छोड़ा जायगा तब तककी उस सामायिक व्रतकी कालमर्यादा हुई । इसी तरह दूसरे प्रकारोंका हाल है और ये सब घड़ी-घण्टा आदिकी परतन्त्रता से रहित सामायिककारकी स्वतन्त्रताके द्योतक अतिप्राचीन प्रयोग हैं जिनकी पूरी रूपरेखा आज बहुत कुछ अज्ञात है ।
सामायिक के योग्य स्थानादि
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एकान्ते सामयिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वाऽपि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥६॥६६ 'वनोंमें, मकानों में तथा चैत्यालयों में अथवा ( ' अपि ' शब्द से ) अन्य गिरि-गुहादिकों में जो निरुपद्रव-निराकुल एकान्त स्थान हो उसमें प्रसन्नचित्तसे स्थिर होकर सामायिकको बढ़ाना चाहियेपंच पापोंके त्यागमें अधिकाधिक रूपसे दृढता लाना चाहिये ।'
व्याख्या—यहाँ 'एकान्ते' और 'निर्व्याक्षेपे' ये दो पद खास तौर से ध्यान में लेने योग्य हैं और वे इस बातको सूचित करते हैं कि सामायिक के लिये वन, घर या चैत्यालयादिका जो भी स्थान चुनाजाय वह जनसाधारण के आवागमनादि - सम्पर्क से रहित अलग-थलग हो और साथ ही चींटी, डांस मच्छरादिके उपद्रवों तथा बाहर के कोलाहलों एवं शोरोगुलसे रहित हो, जिससे सामायिकका कार्य निराकुलता के साथ सघ सके- उसमें कोई प्रकारका