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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०३ 'अतोऽन्यत्पापं इस सूत्रके द्वारा सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम और शुभ (उच्च) गोत्रको छोड़कर शेष सब कर्मप्रकृतियोंको 'पाप' बतलाया है । दूसरे भी पुरातन आचार्योंका ऐसा ही कथन है। अतः जहाँ कहीं भी हिमादिकको पाप कहा गया है वहाँ कारणमें कार्यकी दृष्टि संनिहित है, ऐसा समझना चाहिए ।
अहिमा रणुव्रत-लक्षगा संकल्पात्कृत-कारित-मननाद्योग-त्रयस्य-चर-सत्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थल-वधाद्विरमणं निपुणाः ॥७॥५३॥ ___ 'संकल्प- ----संकल्पपूर्वक ( इरादतन ) अथवा गृद्ध स्वेच्छामेकिये गये योगत्रयके--मन-वचन-कायत-कृतकारित-अनुमोदनरूप व्यापारसे जो त्रम जीवोंका-नयभूत द्वीन्द्रियादि प्राणियोंका -~-प्राणघात न करना है उसे निपुग जन (प्राप्तपुरुष व गग्गधरादिक) 'स्शुलवधविरमग'---हिसागुद्रत-कहते हैं।
व्याख्या-यहाँ 'संकल्पात्' पद उसी तरह हेतुरूपमें प्रयुक्त, हा है जिस तरह कि तत्त्वार्थसूत्रमें 'प्रमत्तयोगात' और पुस्पार्थसिद्व्युपायमें कपाययोगान् पदका प्रयोग पाया जाता है, और यह पद प्रारम्भादिजन्य-त्रसहिंसाका निवर्तक (अाहक) तथा इस व्रतके व्रतीकी शुद्ध-म्वेच्छा अथवा स्वतन्त्र इन्लाका संद्योतक है । और इसके द्वारा व्रतको अगुताके अनुरूप जहाँ साहसाको सीमित किया गया है वहाँ यह भी सूचित किया गया है कि इस (संकल्प) के विना वह (संकल्पी) त्रसहिंसा नहीं बनेगी। और यह ठीक ही है; क्योंकि कारणके अभावमें तजन्य कार्यका भी अभाव होता है। और इस 'संकल्पात' पदवी * प्रमत्तयोगात्प्रारणव्यपरोपणं हिंसा। -तत्त्वार्थसूत्र ७-१३ यत्खलु कपाययोगात्प्रारगानां द्रव्य-भाव-रूपारगां। व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ पुरुयार्य ०४३