Book Title: Samichin Dharmshastra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 269
________________ ११४ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०४ प्राप्त होते हैं । यहाँ चारित्रमोहके परिणामोंका 'सत्वेन दुरवधाराः' विशेषण बहुत ही महत्वपूर्ण है और इस बातको सूचित करता है कि जहाँ क्रोधादिकषायें साफ तौरसे परिलक्षित या भभकती हुई नज़र आती हों वहाँ महाव्रतोंकी कल्पनातक भी नहीं की जा सकती-भले ही वे व्यक्ति बाह्यमें मुनिपदके धारक क्यों न हों। __ महाव्रत-लक्षण पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचःकायैः । कृत-कारिताऽनुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ॥६॥७२॥ — हिंसादिक पांच पापोंका-पापोपार्जनके कारणोंका--मनसे, वचनसे, कायसे, कृत-द्वारा, कारित-द्वारा और अनुमोदन-द्वारा जो त्याग है--अर्थात् नव प्रकारसे हिंसादिक पापोंके न करनेका जो दृढ संकल्प है--उसका नाम 'महाव्रत' है और वह महात्माओंकेप्रायः प्रमत्तसंयतादि-गुणस्थानत्ति-विशिष्ट-प्रात्माओंके होता है।' ___व्याख्या-यहाँ पापोंके साथमें 'स्थूल'-जैसा कोई विशेषण नहीं लगाया गया, और इसलिये यहाँ स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों प्रकारके सभी पापोंका पूर्णरूपसे त्याग विवक्षित है। हिंसादि पाँचों पापोंका मन-वचन-कायसे कृत कारित और अनुमोदनाके रूपमें जो यह त्याग है वही महाव्रत है--पंच महाव्रतोंका समूह है-और उसको धारण-पालन करनेवाले महान् आत्मा होते हैं। अपरिग्रह-महाव्रतमें बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग होता है । अभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकारके हैं, जिनमें राग-द्वेप-मोह-काम-क्रोध-मान-माया-लोभ तथा भयादिक शामिल हैं। इन सब अन्तरंग-परिग्रहोंका पूर्णतः त्याग १२वें गुणस्थानमें जाकर होता है, जहाँ कि मोहनीय-कर्म अत्यन्त क्षीण होकर आत्मासे अलग हो जाता है-उसका अस्तित्व ही वहाँ शेष नहीं रहता; क्योंकि ये सब परिग्रह मोहनीय-कर्मके ही

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