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कारिका ७८-७६ ] अपध्यान-लक्षण - द्वेषभावसे किसीको मारने-पीटने, बांधने या उसके अंगच्छेदनादिका-तथा किसीकी हार (पराजय) का-और रागभावसे परस्त्री आदिका-दूसरोंकी पत्नी-पुत्र-धन-धान्यादिका-तथा किसीकी जीत ( जय ) का-जो निरन्तर चिन्तन है-कैसे उनका सम्पादनविनाश-वियोग, अपहरण अथवा सम्प्रापण हो, ऐसा जो व्यर्थका मानसिक व्यापार है-उसे जिन-शासनमें निष्णात कुशलबुद्धि आचार्य अथवा गणधरादिकदेव · अपध्यान' नामका अनर्थदण्डव्रत बतलाते हैं।'
व्याख्या-यहाँ 'द्वेषात्' और 'रागात्' ये दोनों पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं, जो कि अपने अपने विषयकी दृष्टिको स्पष्ट करने के लिये प्रयुक्त हुए हैं । 'द्वेषात्' पदका सम्बन्ध वधबन्ध-छेदादिकसे है, जिसमें किसीकी हार (पराजय ) भी शामिल है; और 'रागात्' पदका सम्बन्ध परस्त्री आदिकसे है, जिसमें किसीकी जीत ( जय ) भी शामिल है । वध-बन्ध-च्छेदादिका चिन्तन यदि द्वेषभावसे न होकर सुधार तथा उपकारादिकी दृष्टिसे हो और परस्त्री आदिका चिन्तन कामादि-विषयक अशुभ रागसे सम्बन्ध न रखकर यदि किसी दूसरी ही सदृष्टिको लिये हुए हो तो वह चिन्तन अपध्यानकी कोटिसे निकल जाता है । अपध्यानके लिये द्वेषभाव तथा अशुभरागमेंसे किसीका भी होना आवश्यक है।
दु:श्रुति-लक्षण आरम्भ-संग-साहस-मिथ्यात्व-द्वेष-राग-मद-मदनैः । चेतःकलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥१३॥ ७६ ॥ ___(व्यर्थके) आरम्भ (कृष्यादिसावद्यकर्म) परिग्रह (धन-धान्यादिकी इच्छा), साहस (शक्ति तथा नीतिका विचार न करके एक दम किये जानेवाले भारी असत्कर्म), मिथ्यात्व (एकान्तादिरूप अतत्त्वश्रद्धान )