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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०४ अर्थका वाचक है । साथ ही 'पाँचेन्द्रियविषय' विशेषण देकर यह भी स्पष्ट किया गया है कि वह भोग या उपभोग किसी एक ही इन्द्रियका विषय नहीं है बल्कि पाँचों ही इन्द्रियोंके विषयोंसे सम्बन्ध रखता है-सभी इन्द्रियोंके विषय यथासाध्य भोगउपभोगोंमें परिगृहीत हैं।
___ मधु-मांसादिके त्यागकी दृष्टि त्रसहति-परिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमाद-परिहतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनरचरणौ शरणमुपयातैः ॥१८॥४॥
'जिन्होंने जिन-चरणोंको शरणरूपमें (अपाय-परिरक्षक-रूपमें) प्राप्त किया है जो जिनेन्द्रदेवके उपासक बने हैं उनके द्वारा त्रसजीवोंकी हिंसा टालनेके लिये 'मधु' और 'मांस' तथा प्रमादको --चित्तकी असावधानता-अविवेकताको-दूर करनेके लिये मद्यमदिरादिक मादक पदार्थ-वर्जनीय हैं--अर्थात् ये तीनों दूषित पदार्थ भोगोपभोगके परिमाणमें ग्राह्य नहीं हैं, श्रावकोंके लिए सर्वथा त्याज्य हैं।'
व्याख्या-यहाँ 'प्रसहतिपरिहरणार्थ' पदके द्वारा मांस तथा मधुके त्यागकी और 'प्रमादपरिहृतये' पदके द्वारा मद्यके त्यागकी दृष्टिको स्पष्ट किया गया है । अर्थात् त्रसहिंसाके त्यागकी दृष्टि से मांस तथा मधुका त्याग विवक्षित है और प्रमादके परिहारकी दृष्टिसे मद्यका परिहार अपेक्षित है, ऐसा घोषित किया गया है। और इसलिए जहाँ विवक्षित दृष्टि चरितार्थ नहीं होती वहाँ विवक्षित त्याग भी नहीं बनता। इन पदार्थोके स्वरूप एवं त्यागादि-विषयका कुछ विशेष कथन एवं विवेचन अष्टमूलगुण-विषयक-कारिका (६६) की व्याख्यामें आगया है अतः उसको फिरसे यहां देनेकी जरूरत नहीं है।