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समीचीन धर्मशास्त्र
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चन्द्राचार्य ने इस पद का अर्थ जो 'अपक्वानि' दिया है वह भी इसी की दृष्टिको लिये हुए हैं; क्योंकि जो कन्द-मूल अग्नि आदिके द्वारा पके या अन्य प्रकारसे जीवशून्य नहीं होते वे सचित्त तथा प्रासुक होते हैं । प्रामुक कन्द-मूलादिक द्रव्य वे कहे जाते हैं जो सूखे होते हैं, अग्न्यादिकमें पके या खूब तपे होते हैं, खटाई तथा लवणसे मिले होते हैं अथवा यन्त्रादिसे छिन्न-भिन्न किये होते हैं; जैसा कि इस विषयकी निम्न प्राचीन प्रसिद्ध गाथासे प्रकट है:"सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल-लवणेण मिस्सियं दव्वं । जं जंतेण यद्विणं तं सव्वं फामुयं भणियं ॥"
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और 'प्राकस्य भक्षणे नो पापः - - प्राशुक पदार्थ के खाने में कोई पाप नहीं, इस उक्ति के अनुसार वे ही कन्द-मूल त्याज्य हैं जो प्रासु तथा अचित नहीं हैं और उन्हींका त्याग यहाँ 'आर्द्राणि' पदके द्वारा विवक्षित है। नवनीत (मक्खन) में अपनी उत्पत्ति से अन्तमुहूर्तके बाद ही सम्मूर्च्छन जीवोंका उत्पाद होता है अतः इस काल मर्यादा बाहरका नवनीत ही यहां त्याज्य- कोटि में स्थित है - इससे पूर्वका नहीं; क्योंकि जब उसमें जीव ही नहीं तब उसके भक्षण में बहुघातकी बात तो दूर रही अल्पधातकी बात भी नहीं बनती। नीमके फूल अनन्तकाय और केतकी के फूल बहु-जन्तुओं योनिस्थान होते हैं । इसीसे वे त्याज्य- कोटि में स्थित हैं।
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यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि 'अल्पफलबहुविघातात् ' पदके द्वारा त्यागके हेतुका निर्देश किया गया है, जिसके 'अल्पफल' और 'बहुविघात' ये दो अङ्ग हैं। यदि ये दोनों अङ्ग एक साथ न हों तो विवक्षित त्याग चरितार्थ नहीं होगा; जैसे बहुफल अपघात, बहुफल बहुधात और अल्पफल अल्पघातकी हालतोंमें । इसी तरह प्रामुक अवस्था में जहाँ कोई घात ही न बनता हो वहाँ भी यह त्याग चरितार्थ नहीं होगा ।