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कारिका ७६] पापोपदेश-लक्षण तिर्यञ्चोंकेक्लेशकी तथा क्रय-विक्रयादिरूप वाणिज्यकी अथवा तिर्यश्चोंके लिये जो क्लेशरूप हो ऐसे वाणिज्यकी, हिंसाकीप्रारिणयोंके वधकी----, प्रारम्भकी-कृष्यादिरूप सावद्यकर्मोकी-प्रलम्भनकी--प्रवंचना-ठगीकी--,और आदि' शब्दसे मनुष्यक्लेशादिविषयोंकी कथाओंके ( व्यर्थ ) प्रसंग छेड़नेको 'पापोपदेश'-पापात्मक उपदे...-नामका अनर्थदण्ड जानना चाहिये।'
व्यारव्या--यहाँ जिस प्रकारकी कथाओंके प्रसंग छेड़नेकी बात कही गई है वह यदि सत्य घटनाओंके प्रतिपादनादिरूप ऐतिहासिक दृष्टिको लिए हुए हो, जैसा कि चरित-पुराणादिरूप प्रथमानुयोगके कथानकामें कहीं-कहीं पाई जाती है, तो उसे व्यर्थअपार्थक या निरर्थक नहीं कह सकते, और इसलिये वह इस अनथेदण्डव्रतकी सीमाके बाहर है। यहाँ जिस पापोपदेशके लक्षणका निर्देश किया गया है उसके दो एक नमूने इस प्रकार हैं
१. 'अमुक देशमें दासी-दास बहुत सुलभ हैं उन्हें अमुक देशमें ले जाकर बेचनेसे भारी अर्थ-लाभ होता है,' इस प्रकारके आशयको लिये हुए जो कथा-प्रसंग है वह 'क्लेश-वणिज्या' रूप पापोपदेश है।
२. 'अमुक देशसे गाय-भैंस-बैलादिको लेकर दूसरे देशमें उनका व्यापार करनेसे बहुत धनकी प्राप्ति होती है' इस आशयके अभिव्यंजक कथाप्रसंगको ‘तिर्यक् वणिज्यात्मक-पापोपदेश' समझना चाहिये।
३. शिकारियों तथा चिड़ीमारों आदिके सामने ऐसी कथा करना जिससे उन्हें यह मालूम हो कि 'अमुक देश या जंगलमें मृग-शूकरादिक तथा नाना प्रकारके पक्षी बहुत हैं,' यह 'हिंसाकथा' के रूपमें पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड है।