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कारिका ७३-७४] दिग्वतके अतिचार परिकर परिवार अथवा अंग हैं। ऐसी स्थितिमें महाव्रतोंकी पूर्णता भी १२वें गुणस्थानमें जाकर ही होती है। उससे पूर्वके छठे आदि गुणस्थानवर्तियोंको जो महाव्रती कहा जाता है वह पूर्व-कारिकानुवर्णित इस दृष्टिको लक्ष्यमें लेकर ही जान पड़ता है कि वहाँ चारित्रमोहके परिणाम 'सत्वेन दुरवधार' होते हैं।
दिग्वतके अतिचार ऊर्ध्वाऽधस्तात्तिर्य ग्व्यतिपात-क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् । विस्मरणं दिग्विरतरत्याशाः पंच मन्यन्ते ॥७॥७३॥ ' (अज्ञान या प्रमादमे) ऊपरकी दिशा-मर्यादाका उल्लंघन, नीचेकी दिशामर्यादाका उल्लंघन,दिशाओं-विदिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन, क्षेत्रवृद्धि-क्षेत्रकी मर्यादाको बढ़ा लेना-तथा की हुई मर्यादाओंको भूल जाना; ये दिखतके पाँच अतिचार माने जाते हैं।'
व्याख्या-यहाँ दिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन और क्षेत्रवृद्धिकी जो बात कही गई है वह जान-बूझकर की जानेवाली नहीं बल्कि अज्ञान तथा प्रमादसे होनेवाली है; क्योंकि जानबूझकर किये जानेसे तो व्रत भंग होता है-अतिचारकी तब बात ही नहीं रहती।
अनर्थदण्डव्रत-लक्षण अभ्यंतरं दिगवधेरपार्थकेभ्यः सपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुव्रतधराऽग्रण्यः ॥८॥७४॥
'दिशाओंकी मर्यादाके भीतर निष्प्रयोजन पापयोगोंसेपापमय मन, वचन, कायकी प्रवृत्तियोंसे-जो विरक्त होना है उसे व्रतधारियोंमें अग्रणी-तीर्थकरादिक देव-'अनर्थदण्डव्रत' कहते हैं।
व्याख्या-यहाँ पापयोगका-अपार्थक (निष्प्रयोजन) विशेपण खास तौरसे ध्यान देनेके योग्य है और इस बातको सूचित