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कारिका ७१] महाव्रतत्वके योग्य परिणाम ११३
'दिशाओंके व्रतोंको धारण करनेवालोंके अणुव्रत, मर्यादाके बाहर सूक्ष्म-पापोंकी निवृत्ति हो जानेके कारण, पंच महाव्रतोंकी परिणतिको-उतने अंशोंमें महाव्रतों-जैसी अवस्थाको प्राप्त होते हैं।'
व्याख्या-जब दिग्वतोंका धारण-पालन करने पर अणुव्रत महाव्रतोंकी परिणतिको प्राप्त होते हैं तब 'दिव्रत गुणव्रत हैं। यह बात सह में ही स्पष्ट हो जाती है और इसका एक मात्र आधार मर्यादित क्षेत्रके बाहर सूक्ष्म पापसे भी विरक्तिका होना है।
__ महाव्रतत्वके योग्य परिणाम प्रत्याख्यान-तनुत्वान्मन्दतराश्चरणमोह-परिणामाः । सत्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते ॥५॥७१॥
'प्रत्याख्यानके कृश होनेसे--प्रत्याख्यानावरण रूप द्रव्य-क्रोधमान-माया-लोभ नामक कर्मोका मन्द उदय होनेके कारण—चारित्रमोहके परिणाम-क्रोध-मान-माया-लोभके भाव--बहुत मन्द होजाते हैं, ( यहाँ तक कि ) अपने अस्तित्वसे दुरवधार हो जाते हैंसहजमें लक्षित नहीं किये जा सकते-वे परिणाम महाव्रतके लिये प्रकल्पित किये जाते हैं उन्हें एक प्रकार महाव्रत कहा जाता है।'
व्याख्या-यहाँ 'प्रत्याख्यान' शब्द नामका एकदेश होनेसे 'प्रत्याख्यानावरण' नामका उसी तरह वाचक है जिस तरह कि 'राम' शब्द 'रामचन्द्र' नामके व्यक्तिविशेषका वाचक होता है । हिंसादिकसे विरक्तिरूप संयमका नाम प्रत्याख्यान है। इस प्रत्याख्यानको जो आवृत्त करते हैं-नहीं होने देते-वे द्रव्य क्रोधमान-माया और लाभके रूपमें चार कर्म-प्रकृतियाँ हैं, जिन्हें 'प्रत्याख्यानावरण' कहा जाता है। इन चारों कर्मप्रकृतियोंका उदय जब अतिमन्द होता है तो चारित्रमोहके परिणाम भी अतीव मन्द हो जाते हैं अर्थात् क्रोध-मान-माया-लोभके भाव इतने अधिक क्षीण हो जाते हैं कि उनका अस्तित्व सहजमें ही मालूम नहीं पड़ता । चारित्रमोहके ये ही मन्दतर परिणाम महाव्रतत्वको