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कारिका ६६] अष्ट मूलगुण
१०६ पादन किया है वह युक्तियुक्त ही प्रतीत होता है। परन्तु बादमें ऐसा जान पड़ता है कि जैन गृहस्थोंको परस्परके इस व्यवहारमें कि 'आप श्रावक हैं' और 'आप श्रावक नहीं हैं। कुछ भारी असमंजसता प्रतीत हुई है। और इस असमंजसताको दूर करने के लिए अथवा देशकालकी परिस्थितियोंके अनुसार सभी जैनियोंको एक ही श्रावकीय झण्डेके तले लाने आदिके लिए जैन आचार्योंको इस बातकी जरूरत पड़ी है कि मूलगुणोंमें कुछ फेर-फार किया जाय और ऐसे मूलगुण स्थिर किये जाँय जो व्रतियों और अव्रतियों दोनोंके लिए साधारण हो । वे मूलगुण मद्य, मांस और मधुके त्याग रूप तीन हो सकत थे; परन्तु चूंकि पहलेसे मूलगुणोंकी संख्या आठ रूढ थी, इसलिये उस संख्याको ज्यों-का-त्यों कायम रखनेके लिये उक्त तीन मूलगुणोंमें पंचोदुम्बर फलोंके ल्यागकी योजना की गई है और इस तरह इन सर्वसाधारण मूलगुणोंकी सृष्टि हुई जान पड़ती है । ये मूलगुण व्रतियों और अवतियों दोनोंके लिये साधारग हैं, इसका स्पष्टीकरण कविराजमल्लके पंचाध्यायी तथा लाटीसंहिता ग्रन्थोंके निम्न पद्यसे भले प्रकार हो जाता है:
तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् ।
क्वचिदतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे ॥ परन्तु यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि समन्तभद्र-द्वारा प्रतिपादित मूलगुणोंका व्यवहार अवतियोंके लिये नहीं हो सकता, वे व्रतियोंको ही लक्ष्य करके लिखे गये हैं ; यही दोनोंमें परम्पर भेद है। अस्तु; इस प्रकार सर्वसाधारण मूलगुणोंकी सृष्टि हो जाने पर, यद्यपि, इन गुणोंके धारक अवती भी श्रावकों तथा देशव्रतियोंमें परिगणित होते हैं-सोमदेवने, यशस्तिलकमें, उन्हें साफ तौरसे 'देशयति' लिखा है --तो भी वास्तवमें उन्हें 'नामके ही' श्रावक अथवा देशयति समझना चाहिये; जैसाकि पंचाध्यायी