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समीचीन धर्मशास्त्र
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व्रतोंके स्थानपर पंच उदुम्बरफलोंका निर्देश किया है । जिनमें बड़, पीपल, पिलखन आदिके फल शामिल हैं । कहाँ पंचाणुत्रत और कहाँ पंच उदुम्बर फलोंका त्याग ! दोनोंमें ज़मीन-आस्मानकासा अन्तर है । वस्तुतः विचार किया जाय तो उदुम्बरफलोंका त्याग मांसके त्याग में ही आ जाता है; क्योंकि इन फलों में चलतेफिरते त्रस जीवोंका समूह साक्षात् भी दिखलाई देता है, इनके भक्षणसे मांसभक्षणका स्पष्ट दोष लगता है, इसीसे इनके भक्षणका निषेध किया जाता है । और इसलिए जो मांस भक्षण के त्यागी हैं वे प्रायः कभी इनका सेवन नहीं करते। ऐसी हालत में -मांसत्याग नामका एक मूलगुण होते हुए भी-पंच उदुम्बरफलोंके त्यागको, जिनमें परस्पर ऐसा कोई विशेष भेद भी नहीं है. पांच अलग अलग मूलगुण करार देना और साथ ही पंचाव्रतोंको मूलगुणोंसे निकाल देना एक बड़ी ही विलक्षण बात मालूम होती है । इस प्रकारका परिवर्तन कोई साधारण परिवर्तन नहीं होता । यह परिवर्तन कुछ विशेष अर्थ रखता है । इसके द्वारा मूलगुणका विषय बहुत ही हलका किया गया है और इस तरह उन्हें अधिक व्यापक बनाकर उसके क्षेत्रकी सीमाको बढ़ाया गया है । बात असल में यह मालूम होती है कि मूल और उत्तर गुणोंका विधान व्रतियों के वास्ते था । अहिंसादिक पंचत्रतोंका जो सर्वदेश ( पूर्णतया ) पालन करते हैं वे महाव्रती, मुनि अथवा यति आदि कहलाते हैं और जो उनका एकदेश ( स्थूलरूपसे ) पालन करते हैं. उन्हें देशव्रति, श्रावक अथवा देशमति कहा जाता है ।
जब महाव्रतियोंके २८ मूलगुणों में अहिंसादिक पंचत्रतोंका वर्णन किया गया है तब देशव्रतियोंके मूलगुणों में पंचाणुव्रतोंका विधान होना स्वाभाविक ही है और इसलिये स्वामी समन्तभद्रने पंचतों को लिए हुए श्रावकों के अष्ट मूलगुणोंका जो प्रति