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कारिका ६४-६५ ] अहिंसादिके पालने में प्रसिद्ध
अनेक प्रकारके इच्छितरूष युगपत् धारण किये जा सकें । और 'दिव्यशरीर' पढ़से उस प्रकारके शरीरका अभिप्राय है जो सप्त कुधातु तथा मल-मूत्रादिसे युक्त औदारिक न होकर वैकियक होता है और अद्वितीय शोभासे सम्पन्न रहता है ।
हिंसादिके पालने में प्रसिद्ध * मातंगो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः । । नीली जयश्च सम्प्राप्ताः पूजाऽतिश्यमुत्तमम् ||१८|| ६४ || धनश्री - सत्यघोषौ च तापसाऽऽरक्षकावपि । उपाख्येयास्तथाश्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ||१६|| ६५ ॥
'मातंग ( चाण्डाल ), धनदेव (सेठ), तदन्तर वारिषेण (राजकुमार), नीली ( वणिक्पुत्री ) और जय ( राजा ), उत्तम पूजातिशयको प्राप्त हुए ।'
' धनश्री ( सेठानी) और सत्यघोष (पुरोहित), तापस और आरक्षक (कोट्टपाल) तथा श्मश्रुनवनीत ( मूछों में लगे घीसे व्यापार करनेका अभिलापी); ये यथाक्रम उपाख्य हैं उन्हें क्रमशः उपाख्यान (परम्परा कथा ) का विषय बनाना चाहिए।'
व्याख्या - इन श्लोकोंकी शब्दरचना परमे यद्यपि यह स्पष्ट मालूम नहीं होता कि मातंगादिकने किस विषय में उत्तम पूजातिशयको प्राप्त किया और धनश्री आदिको किस विषय में उपाख्यानका विषय बनाना चाहिए; फिर भी इन व्यक्तियोंकी कथाएँ हिंसा हिंसादिके विषय में सुप्रसिद्ध हैं और अनेक ग्रन्थोंमें पाई जाती हैं अतः उन्हें यहाँ उदाहृत नहीं किया गया है ।
* इन दोनों श्लोकोंकी स्थिति आदिके सम्बन्धमें विशेष विचार तथा उहापोहको जाननेके लिये ग्रन्थकी प्रस्तावनाको देखना चाहिये । + 'परं' इति पाठान्तरम् ।