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कारिका ६२-६३] अपरिग्रहऽणुव्रतके अतिचार १०३
अपरिग्र हाऽणुव्रतके अतिचार अतिवाहनाऽतिसंग्रह-विस्मय-लोभाऽतिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पंच लक्ष्यन्ते ॥१६॥६२॥ _ 'परिमितपरिग्रह ( परिग्रहपरिमारण ) व्रतके भी पाँच अतिचार निर्दिष्ट किये जाते हैं और वे हैं--- १ अतिवाहन-अधिक लाभ उठाने की दृष्टिसे अधिक चलाना, जोतना, इस्तेमाल करना अथवा काम लेना-, २ अतिसंग्रह-विशिष्ट लाभकी प्राशासे अधिक काल तक धन-धान्यादिकका संग्रह रखना----, ३ अतिविस्मय-व्यापारादिकमें दुमरोंके अधिक लाभको देखकर विपाद करना अर्थात् जलना-कुढ़ना-, ४ अनिलोभ-विशिष्ट लाभ होते हुए भी और अधिक लाभकी लालसा रखना-, और ५ अतिभारवाहन--लाभके वश किसी पर शक्तिसे अथवा न्याय-नोतिसे अधिक भार लादना--: ये परिग्रहपरिमारग व्रत अथवा अपरिग्रहाऽरगुव्रतके पाँच अतिचार हैं। ___ व्याख्या---परिग्रहपरिमागाव्रत लेनेके समय संस्कारित दृष्टिमें चंतन-अचेतन पदार्थोस लाभ उठानेके लिये उनके इस्तेमाल ( उपयोग ) आदिका जो माध्यम होना है उससे अधिकका ग्रहा अथवा न्याय-नीतिका उल्लंघन करके अधिक ग्रहण ही यहाँ 'अति' शब्दका वाच्यार्थ है।
अरणवत-पालन-फल पंचाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् । यत्राऽवधिरष्टगुणाः दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ॥१७॥६३॥ ___ निरतिचाररूपसे पालन किये गये ( उक्त अहिसादि ) पाँच अणुव्रत निधिस्वरूप हैं और वे उस सुरलोकको फलते हैंप्रदान करते हैं-जहाँ पर (स्वतः स्वभावसे) अवधिज्ञान, (अणिमादि) आठगुण और दिव्य शरीर प्राप्त होते हैं।