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१०० समीचीन-धर्मशास्त्र
[अ०३ दुसरा विधिपरक है। दोनोंका आशय एक है । विधिपरक 'स्वदारसंतोष' का आशय बिल्कुल स्पष्ट है और वह है अपनी स्त्रीमें ही सन्तुष्ट रहना-एक मात्र उसीके साथ काम-सेवा करना । और इसलिये परदारनिवृत्तिका भी यही आशय लेना चाहिये-अर्थात् स्वदारभिन्न अन्य स्त्रीके साथ कामसेवाका त्याग। इससे दोनों नामोंकी वाच्यभूत वस्तु (ब्रह्मचर्याणुव्रत) के स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं रहता और वह एक ही ठहरती है । प्रत्युत इसके, 'परदार' का अर्थ परकी (पराई) विवाहिता या धरेजा करी हुई स्त्री करना और एक मात्र उसीका त्याग करके शेप कन्या तथा वेश्याके सेवनकी छूटं रखना संगत प्रतीत नहीं होता; क्योंकि इससे दोनों नामोंके अर्थका समानाधिकरण नहीं रहता।
ब्रह्मचर्याऽणुव्रतके अतिचार अन्यविवाहाऽऽकरणाऽनङ्गक्रीडा-विटत्व-विपुलतपः । इत्वरिकागमनं चाऽम्मरस्य पंच व्यतीचाराः ॥१४॥६०|| ___ 'अन्यविवाहाऽऽकरण-दूसरोंका अर्थात् अपने तथा स्वजनोंसे भिन्न गैरोंका विवाह सम्पन्न करनेमें पूरा योग देना--, अनङ्गक्रीड़ानिर्दिष्ट कामके अंगोंको छोड़कर अन्य अंगादिकोंसे या अन्य अंगादिकोंमें कामक्रीडा करना ---, विटपनेका व्यवहार ---भण्डपनेको लिये सा काय वचनकी कुचेष्टा-. विपुलतृष्णा-कामकी तीव्र लालमा.-और इत्वरिकागमन-कुलटा व्यभिचारिणी स्वस्त्रीका सेवन-: ये स्मरके -स्थूलकामा रिति अथवा ब्रह्मचर्याणुव्रतके-पांच अतिचार हैं।
व्याख्या--यहाँ 'अन्यविवाहाऽऽकरण', 'अनङ्गक्रीड़ा, और 'इत्वरिकागमन ये तीन पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य है । 'अन्यविवाहाऽऽकरण' पदमें 'अन्य' शब्दका अभिप्राय उन दृमरे लोगोंने है जो अपने कुटुम्बी अथवा आश्रिनजन नहीं हैं