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७८ ___ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०२ त्यों जानना बन सकता है । और श्रुतज्ञानके इस रूपके ही केवलज्ञानकी तरह जीवादि समस्त पदार्थों के स्वरूपको अविकल-रूपमे प्रकाशनकी सामर्थ्यका संभव हो सकता है, जिस सामर्थ्यका पता स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' की निम्न कारिकासे चलता है, जिसमें बतलाया गया है कि स्याद्वादरूप जो श्रुतज्ञान है वह
और केवलज्ञान दोनों ही सर्वतत्त्वोंके प्रकाशनमें समर्थ हैं, भेद इतना ही है कि एक उन्हें साक्षातरूपसे प्रकाशित करता है तो दुसरा असाक्षात् (अप्रत्यक्ष वा परोक्ष) रूपसे:
स्याद्वाद-केवलज्ञाने सर्व-तत्त्व-प्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥१०५॥ उक्त स्वरूपको लिये हुए जो ज्ञान है वही इस ग्रन्थमें धर्मक अंगरूपमें स्वीकृत है। __ आगे विषय-भेदसे इस ज्ञानके मुख्य चार भेदोंका वर्णन करते हुए ग्रन्थकार महोदय लिखते है:
प्रथमानयोग-स्वरूप प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि-समाधि-निदानं बोधति बोधः समीचीनः ॥२॥४३॥ _ 'पुण्यके प्रसाधनस्वरूप तथा बोधि-समाधिके निदानरूपसम्यग्दर्शनादिक और धर्म-ध्यानादिककी प्राप्तिमें कारणरूप-जो अर्थाख्यान है-शब्द-अर्थ-व्यंजक कथानक है--चारित्र और पुराण है-एकपुरुषाश्रित सत्यकथा और अनेकपुरुषाश्रित सत्यघटना-समूह है-वह प्रथमानुयोग है, उस प्रथमानुयोगको जो जानता है वह सम्यग्ज्ञान है । अर्थात् उक्त स्वरूपात्मक प्रथमानुयोगका जानना भी भावश्रुतरूप सम्यग्ज्ञानमें शामिल अथवा परिगणित है ।
व्याख्या-यहाँ अनुयोग शब्दके पूर्व में जो 'प्रथम' शब्दका प्रयोग पाया जाता है वह किसी संख्या अथवा क्रमका वाचक