________________
कारिका ४५-४६] चरणा-द्रव्यानुयोग-स्वरूप लिये हुए जो शास्त्र है वह चरणानुयोग है; उस शास्त्रको जो विशेष रूपसे जानता है वह (भावश्रुतरूप ) सम्यग्ज्ञान है । अर्थात् उक्त स्वरूप चरणानुयोगका जानना भी सम्यग्ज्ञान है।
व्याख्या-यहाँ 'चरणानुयोगसमयं' पदका जो विशेषण पूर्वार्द्धके रूपमें स्थित है उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि चरणानुयोग नामकः जो द्रव्यश्रुत ( केवल्यनुकूलप्रणीत आचारशास्त्रादिके रूपमें ) है वह गृहस्थों तथा मुनियोंके चारित्रकी उत्पत्ति, वृद्धि एवं रक्षाको अपना अंग किये होता है-उनका प्रतिपादक होता हैअथवा वैसे चारित्रकी उत्पत्ति आदिमें निमित्तभूत सहायक होता है। उस केवलि-प्रणयनाऽनुवति चारित्र-शास्त्रको जो सविशेष रूपसे जानता है या जिसके द्वारा वह शास्त्र जाना जाता है उसे अथवा उस जाननेको भी सम्यग्ज्ञान कहते हैं, जो कि भावश्रुतके रूपमें होता है।
गृहस्थोंके योग्य चारित्रकी उत्पत्ति वृद्धि और रक्षाका कितना ही मौलिक वर्णन इस ग्रन्थमं आ गया है, जो कि चरणानुयोगका ही एक मुख्य अंग है। गृहत्यागी मुनियोंके चारित्रकी उत्पत्ति वृद्धि और रक्षाकं लिये मूलाचार, भगवती आराधना आदि प्रमुख प्रन्थों को देखना चाहिये।
द्रव्यानुयोग-स्वरूप जीवाऽजीवसुतत्त्वे पुण्याऽपुण्ये च बन्ध-मोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुत-विद्याऽऽलोक माऽऽतनुते ॥५॥४६॥ इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचिते समीचीन-धर्मशास्त्रे रत्नकरण्ड ऽपरनाम्नि उपासकाऽध्ययने सम्यग्ज्ञान
वर्णनं नाम द्वितीयमध्ययनम् ॥२॥ 'जो सुव्यवस्थित जीव-अजीव तत्त्वोंको, पुण्य-पापको तथा बन्ध-मोक्षको और (चकारसे) बन्धके कारण (आस्रव) तथा मोक्षके