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कारिका ४८-४६] प्रतिपद्यमान चारित्रका लक्षण ८५ उपासनामे-की गई होती है। ( इसीसे साधुजन हिंसादि-निवृत्तिलक्षया चारित्रको अंगीकार करते है-उसकी उपासना-आराधनामें प्रवृत्त होते हैं । सो ठीक ही है ) क्योंकि अर्थवृत्तिकी अथवा अर्थ ( प्रयोजनविशेप ) और वृत्ति ( ग्राजीविका ) की अपेक्षा न रखता हुआ ऐमा कौन पुरुप है जो गजाओंकी सेवा करता है ? --कोई भी नहीं । ___व्याकमा-जिम प्रकार राजाओंका संवन बिना प्रयोजनके नहीं होता उसी प्रकार अहिंसादि-व्रतोंका सेवन भी बिना प्रयोजनके नहीं होता । राजारोंके सेवनका प्रयोजन यदि अर्थवृत्ति है तो इन व्रतांक अनुष्ठान-आराधनरूप मेवनका प्रयोजन है उनके द्वारा सिद्ध होनेवाली राग और देपकी निवृत्ति । अतः इस प्रयोजनको सदा ही ध्यानमें रखना चाहिए । अहिंसादिव्रतोंका अनुष्ठान करते हुए यदि यह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो रहा है तो समझना चाहिए कि व्रतोंका सेवन-आराधन ठीक नहीं बन रहा है और तब उसे ठीक तौर पर बनानेका पूर्ण प्रयत्न होना चाहिये। जिम व्रतीका लक्ष्य ही राग-द्वेषकी निवृत्तिकी तरफ़ न हो उसे 'लन्दय-भृष्ट' और उमके व्रतानुष्ठानको व्यर्थका कोरा आडम्बर समझना चाहिये।
प्रतिपद्यमान चारित्रका लक्षगा हिंसाऽनत-चौर्येभ्यो मैथुनसेवा-परिग्रहाभ्यां च। पाप-प्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥३॥४६
'हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुनसंवा और परिग्रहक रूपमें जो पाप-प्रणालिकाएँ हैं--पापम्रवके द्वार हैं, जिनमें होकर ही ज्ञानवरगादि पाप-प्रकृतियाँ अात्मामें प्रवेश पाती हैं और इसलिये पापरूप हैं-उनसे जो विरक्त होना है-तप प्रवृत्ति न करना है—वह सम्यग्ज्ञानीका चारित्र अर्थात् सम्यकचारित्र है।