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कारिका ५ ]
चारित्रके भेद और सामी
( सर्वसंयम) है, और परिग्रहसहित गृहस्थोंका जो चारित्र है वह 'विकलचारित्र' (देशसंयम ) है ।'
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व्याख्या- यहाँ चारित्रके दो भेद करके उनके स्वामियोंका निर्देश किया गया है । महाव्रतरूप सकलचारित्रकं स्वामी (अधिकारी) उन अनगारी (गृहनियों) को बतलाया है जो संपूर्णपरिग्रहसे विरक्त हैं, और अवतरूप विकलचारित्रके स्वामी उन सागारों (गृहस्थों) को प्रकट किया है जो परिग्रहमहित हैं और इसलिये दोनोंके 'सर्वसंगविरत' और 'ससंग' इन दो अलग-अलग विश्लेषणोंसे स्पष्ट है कि जो अनगार सर्वसंगसे रिक्त नहीं है - जिनके दिव्यादिक कोई प्रकारका परिग्रह लग हुआ है- गृहत्यागी होनेपर भी सकलचारित्रके पात्र या रानी नहीं पारी महाव्रती अथवा सकलसंयमी नहीं कह जा सकते; जैसे कि द्रव्यलिंगी सुनि याधुनिक परिग्रहवारी भट्टारक तथा ११ वीं प्रतिमामें स्थित क्षुल्लक - ऐलक | और जो सागार किसी समय सकलसंग से विरत हैं उन्हें उस समय गृहमें स्थित होने मात्र से सवा वारित्र ( तो ) नहीं कह सकते वे अपनी उस असंगदशा में महाव्रतकी और बढ़ जाते है। यही वजह है कि संकारमहादयने सामायिक में स्थित ऐसे गृहस्थोंको 'यति भावको प्राप्त हुआ मुनि' लिखा है ( कारिका १२ ) और मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थको श्रेष्ठ बतलाया है (का. ३३) । और इससे यह नतीजा निकलता है कि चारित्रके 'नकल' या 'विकल' होने में प्रधान कारण उभय प्रकार के परिग्रह - से विरक्ति तथा अविरक्ति है— मात्र गृहका त्यागी या अयागी होना नहीं है। अतः 'सर्वसंगविरत' और 'ससंग' ये दोनों विशेषण अपना खास महत्व रखते हैं और किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं कहे जा सकते।
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