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[ श्र० २
करणानुयोग है, उसको जो जानता है वह भी सम्यग्ज्ञान हैअर्थात् उक्त स्वरूप करणानुयोगका जानना भी सम्यग्ज्ञान है ।
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व्याख्या - यहाँ करणानुयोगके विषयको मोटे रूपसे तीन भागों में विभाजित किया गया है—एक लोक- अलोकके विभाजनका दूसरा युग परिवर्तनका और तीसरा चतुर्गतियोंका विभाग है। जहाँ जीवादिक पदार्थ देखने में आते हैं - पाये जाते हैं— उसे 'लोक' कहते हैं, जो कि ऊर्ध्व मध्य अधोलोकके भेदसे तीन भेद्र रूप है और जिसका परिमाण ३४३ राजू जितना है। जहाँ जीवादि पदार्थ देखनेमें नहीं आते उस लोक बाह्य अनन्त शुद्ध आकाशको 'लोक' कहते हैं । इन दोनोंका विभाग कैसे और क्षेत्र - विन्यासादि किस किस प्रकारका है यह सब करणानुयोगके प्रथम विभागका विषय है । दूसरे विभाग में उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी जैसे युगोंके समयोंका विभाजन और उनमें होनेवाले पदार्थोंके वृद्धि -हासादिरूप परिवर्तनोंका निरूपण आता है । तीसरे विभाग में देव, नरक, मनुष्य और तिर्यंचके भेद से चार गतियोंका स्वरूप तथा स्थिति आदिका वर्णन रहता है । करणानुयोग अपने इन सब विषय विभागों को यथावस्थितरूपमें दर्पणकी तरह प्रकाशित करता है । ऐसे करणानुयोग शास्त्रको भावश्रुतरूप जो सम्यग्ज्ञान है वह जानता है अर्थात् यह भी उस सम्यग्ज्ञानका विषय है । यह अनुयोग अन्यत्र गणितानुयोग के नामसे भी उल्लेखित मिलता है।
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चरणानुयोग स्वरूप
गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-वृद्धि-रक्षाङ्गम् । चरणानुयोग - समयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति || ४ ||४५ ॥
'गृहस्थों और गृहत्यागी मुनियोंके चरित्रकी उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षाके अंगस्वरूप - कारणभूत अथवा इन तीन अंगोंको