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कारिका ४३-४४] प्रथमानुयोग-करणानुयोग-स्वरूप ७६ नहीं है, बल्कि प्रधानताका द्योतक है । यह अनुयोग सब अनुयोगों में प्रधान है; क्योंकि एक तो इसके कथानकोंमें दूसरे अनुयोगोंका बहुत कुछ विषय या जाता है; दूसरे, कथात्मक होनेसे यह बाल वृद्ध युवा और स्त्री सभीके लिये आसांनीसे समझमें आने योग्य होता है, और तीसरे इस अनुयोगमें वर्णित पुण्य-कथानकोंको सुनने तथा अनुभूतिमें लाने से मनुष्य पुण्य-प्रसाधक धर्मकार्योंके करनेमें प्रवृत्त होता है, उसे अप्राप्त सम्यग्दर्शनादिरूप बोधितककी प्राप्ति होती है और वह धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानरूप ममाधिकी सजीव प्रेरणाको पाकर अपने आत्मविकासकी ओर लगता है । इस अनुयोगका अन्यत्र 'धर्मकथानुयोग' के नामम भी उल्लेख मिलता है । इस अनुयोग के सब विशेपणोंमें 'अर्थाख्यान' नामका विशेषण खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है और वह इस बातको सूचित करता है कि इस अनुयोगके कथानक अर्थकी दृष्टिसे प्रकल्पित नहीं होते--वे परमार्थरूप सत् विषयक प्रतिपादनको लिये हुए होते है । इसी बातको टीकाकार प्रभाचन्द्रने निम्न शब्दोंमें व्यक्त किया है
"तस्य प्रकल्पितत्व-व्यवच्छेदार्थमाख्यानमिति विशषणं,अर्थस्य परमार्थस्य सतो विषयस्याऽऽख्यानं यत्र येन वा तं"
और इसलिये जो कथानक अथवा कथा-साहित्य अर्थकी दृष्टिसे प्रकल्पित हो उसे इस अनुयोगक बाहरकी वस्तु समझनी चाहिये।
करणानुयोग-स्वरूप लोकाऽलोक-विभक्ते युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ॥३॥४४॥
'जो लोक-अलोकके विभागका, (उत्सपिण्यादि-युगरूप) कालपरिवर्तनका और चतुर्गतियोंका दर्पणकी तरह प्रकाशक है वह