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द्वितीय अध्ययन
सम्यग्ज्ञान- लक्षण
अन्यनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ १ ॥ ४२ ॥
यथावस्थित वस्तु स्वरूपको जो न्यूनता - विकलता-रहित, अतिरिकता अधिकता - रहित, विपरीतता - रहित और सन्देहरहित जैमाका तैसा जानता है अथवा उस रूप जो जानना है उसे आगमके ज्ञाता (भावश्रुतरूप) 'सम्यकज्ञान' कहते हैं ।'
व्याख्या - सम्यग्ज्ञानका विपय जो यथावस्थित वस्तुस्वरूपको जैसाका तैसा ( याथातथ्यं ) जानना बतलाया गया है उसको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ 'अन्न' 'अनतिरिक्त" "विपरीताद्विना और 'निःसन्देह' इन चार विशेषण पदों का प्रयोग किया गया है और उनके द्वारा यह प्रदर्शित किया गया है कि वस्तुस्वरूपका वह जानना स्वरूपकी न्यूनताको लिये हुए अथवा अव्याप्ति दोषसे दूषित न होना चाहिये, स्वरूपकी अतिरिक्तता - अधिकताको लिये हुए + अथवा अतिव्याप्ति दोपसे दूषित भी वह न होना चाहिये । इसी तरह स्वरूपकी कुछ विपरीतता तथा स्वरूप में सन्देह को भी वह लिये हुए न होना चाहिये। इन चारों विशेषणोंकी सामर्थ्य से ही उस ज्ञानके यथावस्थित वस्तुस्वरूपका ज्योंका
+ जीवादि किसी वस्तुकं स्वरूपमें सर्वथा नित्यत्व-क्षरिणकत्वादि धर्मोके विद्यमान न होते हुए भी जो वैसे किसी धर्मकी कल्पना करके उस वस्तुको उस रूप में जानना है वह स्वरूपकी अतिरिक्तताको लिये हुए जानना है, ऐसा टीकाकार प्रभाचन्द्रने अपनी टीकामें व्यक्त किया है ।