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कारिका ४०-४१] सम्यग्दर्शन-माहात्म्य तक अपनाये रहता है और उसके साथमें द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म रूपसे किसीभी प्रकारके कर्ममलका सम्पर्क नहीं होतावह सारे ही कर्ममलसे सदा अस्पृष्ट बना रहता है । इस अवस्थाविशेषकी प्राप्तिके लिये किसीके हलधर ( बलभद्र ) वासुदेव जैसे मानव-तिलक और चक्रवर्ती या तीर्थंकर होनेकी ज़रूरत नहीं है। अतः इस पद्यमें सम्यग्दर्शनके माहात्म्यका उपसंहार करते हुए जो कुछ कहा गया है वह अपनी जुदी ही विशेषता रखता है ।
देवेन्द्र-चक्र-महिमानममेयमानं राजेन्द्र-चक्रमवनीन्द्र-शिरोऽर्चनीयम् । धर्मेन्द्र-चक्रमधरीकृत-सर्वलोकं लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपति भव्यः ॥४१॥ इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचिते समोचीनधर्मशास्त्रं रत्नकरण्डाऽपर नाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शन
वर्णनं नाम प्रथममध्ययनम् ॥१॥ 'जिनेन्द्रमें भक्तिका धारक भव्य प्राणी-सम्यग्दृष्टि जीवदेवन्द्रोंके समूहकी अमर्यादित महिमाको. अवनीन्द्रों---मुकुटवद्ध माण्डलिक राजाओं--द्वारा नमस्कृत चक्रवर्तियोंके चक्ररत्नको और सम्पूर्ण लोकको अपना उपासक बनानेवाले धर्मेन्द्रचक्रको-धर्मके अनुष्ठाता-प्रणेता तीर्थकरोंके चिन्हस्वरूप धर्मचक्रको-पाकर शिवपद को प्राप्त होता है--प्रान्माकी परमकल्याणमय उस स्वात्मस्थितिरूप आत्यन्तिक अवस्थाको प्राप्त करता है, जो सम्पूर्ण विभाव-परगतिसे रहित होती हैं।'
व्याख्या-ऊपरी दृष्टि से देखनेपर ऐसा मालूम होता है कि इस कारिकामें पिछली चार कारिकाओंके विषयकी पुनरुक्ति की गई है और यह एक उपसंहारात्मक संग्रहवृत्त है; परन्तु जब