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समीचीन धर्मशास्त्र
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गहरी दृष्टि डालकर इसे देखा जाता है तब यह पुनरुक्तियोंको लिए हुए कोरा संग्रहवृत्त मालूम नहीं होता। इसमें 'लब्ध्वा' पढ़ और 'च' शब्द प्रयोग अपनी खास विशेषता रखते हैं और इस बात को सूचित करते हैं कि एक ही सम्यग्दृष्टि जीव क्रमशः देवेन्द्र, राजेन्द्र (चक्रवर्ती) और धर्मेन्द्र ( तीर्थंकर) इन तीनांकी अवस्थाओं को प्राप्त होता हुआ भी शिवपदको प्राप्त करता है और यह पूर्वकी चार कारिकाओं में वर्णित सम्यग्दष्टिकी अव स्थाओं से विशिष्टतम अवस्था है । ऐसे सातिशय पुण्याधिकारी सम्यग्दृष्टि जीव इस अवसर्पिणी कालके भारतवर्ष में कुल तीन ही हुए हैं और वे हैं शान्तिनाथ, कुन्धुनाथ तथा अरहनाथ के जीव, जो एक ही मनुज- पर्याय चक्रवर्ती और तीर्थंकर दोनों पदोंके उपभोक्ता हुए हैं और देबेन्द्रके सुखोंको भोगते हुए इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए थे । अत: इस पद्य में पुनरुक्ति नहीं बल्कि यह संम्यग्दृष्टिकी एक जुड़ी ही विशिष्टावस्था अथवा सम्यग्दर्शनके विशिष्टतम माहात्म्यका संद्योतक है।
इस प्रकार श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य विरचित समीचीन धर्मशास्त्र अपरनाम रत्नकरण्ड- उपासकाध्यायमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला पहला अध्ययन समाप्त हुआ ॥ १ ॥
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