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कारिका ३८-३६] सम्यग्दर्शनका माहात्म्य करनेमें समर्थ होते हैं अर्थात् चक्रवर्ती सम्राट् होते हैं और उनके चरणोंमें राजाओंके मुकुट-शेखर झुकते हैं-मुकुटबद्ध माण्डलीक राजा उन्हें बड़ी विनयके साथ सदा प्रणाम किया करते हैं।'
व्याख्या-यहाँ तीसरी विशिष्टावस्थाका उल्लेख है और वह षटखण्डाधिपति चक्रवर्तीकी अवस्था है जो नवनिधियों ( नो प्रकारके अटूट खजानों ) और चौदह विशिष्ट (चेतन-अचेतनात्मक ) रत्नोंका * स्वामी होता है तथा सारे मुकुटबद्ध माण्डलिक राजा जिसके चरणों में सीस झुकाते हैं। महाकुलादिसम्पन्न मानवतिलक होकर भी किसीके लिए चक्रवर्ती होना लाजमी नहीं है-वह नारायण तथा बलभद्रादि जैसे उच्च-पदका धारक भी हो सकता है। सम्यग्दृष्टि चक्रवर्तीका पद पानेमें भी समर्थ होता है यह उसकी अथवा उसके सम्यग्दर्शनकी जुदी ही विशिष्टता है, जिसका यहाँ उल्लेख है। अमराऽसुर-नर-पतिभिर्यमधर-पतिभिश्च नूतपादाऽम्भोजाः । दृष्टया सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोक-शरण्याः३६ ___जिन्होंने सदृष्टिसे-अनेकान्तदृष्टिसे--अर्थका-जीवादिपदार्थ-समूहका-भले प्रकार निश्चय किया है ऐसे सम्यग्दृष्टिजीव धर्मचक्रके धारक वे तीर्थंकर ( भी ) होते हैं जिनके चरणकमल देवेन्द्रों, असुरेन्द्रों (धरणेन्द्रों), नरेन्द्रों ( चक्रवतियों ) तथा गणधरमुनीन्द्रोंके द्वारा स्तुत किये जाते हैं और जो (कर्मशत्रुप्रोंसे उपद्रुत) + रक्षित-यक्ष-सहस्राः काल-महाकाल-पाण्डु-माणव-शंखाः । नैसर्प-पद्म-पिंगल-नानारत्नाश्च नवनिधयः ।। ऋतुयोग्य-वस्तु-भाजन-धान्या-ऽऽयुध-चूर्म-हर्म्य-वस्त्राणि ।
आभरण-रत्ननिकरान् क्रमेण निधयः प्रयच्छन्ति ।। * चक्रं छत्रमसिर्दण्डो मणिश्चर्म च काकिणी । गृह-सेना-पती तक्ष-पुरोधाऽश्व-गज-स्त्रियः ॥