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कारिका ३५-३६] सम्यग्दर्शनका माहात्म्य विकलत्रयपर्यायको न धारणकर तिर्यंचोंमें संज्ञी-पंचेन्द्रिय-पुल्लिंगपर्यायको ही धारण करनेवाले होंगे। इसी तरह पूर्वबद्ध देवायु तथा मनुष्यायुकी बन्धपर्यायोंमें भी स्वस्थान-संक्रमणकी दृष्टिसे विशेषता आजायगी और वे संभावित प्रशस्तताका रूप धारण करेंगी। यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि यह सब कथन सम्यग्दर्शनका कोरा माहात्म्यवर्णन नहीं है बल्कि जैनागमकी सैद्धान्तिक दृष्टिके साथ इसका गाढ (गहरा) सम्बन्ध है । ओजस्तेजो-विद्या-वीर्य-यशो-वृद्धि-विजय-विभव-सनाथाः। महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥३६॥
'सम्यग्दर्शनसे जिनका आत्मा पवित्र है व ऐसे मानवतिलक गुरपशिरोमरिग--(भी) होते हैं, जो प्रोज-उत्साहमे, तेज-प्रतापसे, विद्या-बुद्धिस, वीर्य-बलग्ने, यश-कीर्तिसे, वृद्धि-उन्नतिसे, जयविजयसे और विभव-ऐश्वर्यसे युक्त होते है, महाकुल होने हैं-- लोकपूजित उत्तम कुलोंमें जन्म लेते है-, और महार्थ होते हैंमहान ध्येयके धारक अथवा विपुल धनसम्पत्तिसे सम्पन्न होते हैं।'
व्याख्या-इससे पूर्वकी कारिकामें उन अवस्थाओंका उल्लेख है जिन्हें अबद्घायुष्क सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं होतं । इस कारिका तथा अगली पाँच कारिकाओंमें उन विशिष्ट अवस्थाओंका निर्देश है जिन्हें वे सम्यग्दृष्टि जीव यथासाध्य प्राप्त होते हैं। ये अवस्थाएँ उत्तरोत्तर विशिष्टताको लिए हुए हैं और जीवोंको अपनी अपनी साधनाके अनुरूप प्राप्त होती हैं । यहाँ वह पूर्व-कारिकोल्लिखित दुष्कुलता और दरिद्रतासे छूटकर साधारण उच्चकुल तथा धनसम्पत्तिसे युक्त मानव ही नहीं होता बल्कि
ओज-तेज-विद्यादिकी विशेषताको लिये हुए महाकुलीन और महदर्थ-सम्पन्न मानवतिलक भी होता है । और इससे यह कारिका पूर्वकारिकासे सामान्यतः फलित होनेवाली अवस्थाओं की एक विशेषताको लिये हुए है।