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समीचीन धर्मशास्त्र
[ श्र० १
अष्ट-गुण- पुष्टि- तुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टा । अमराऽप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ||३७||
'सम्यग्दर्शनकी विशेषताको प्राप्त हुए जिनेन्द्रभक्त, अष्टगुणोंसे - अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, ईशत्व, वशित्व, कामरूपित्व नामकी आठ दिव्यशक्तियोंसे -- तथा पुष्टि से - अपने शरीरावयवोंके दिव्य संगठनसे--- सन्तुष्ट रहते हुए - सदा प्रसन्नताका अनुभव करते हुए — और अतिशय शोभासम्पन्न होते हुए, स्वर्ग में चिरकालतक देव-देवांगनाओं की सभा में - उनके समूहमें — रमते हैंआनन्दपूर्वक क्रीडा करते हैं ।'
व्याख्या -- जिनेन्द्रके भक्त सम्यग्दृष्टि जीव यदि मरकर देवपर्याय को प्राप्त होते हैं तो वे भवनत्रिक में - भवनवासि व्यन्तरज्योतिष्क देवोंमें— जन्म न लेकर प्रायः स्वर्गेमें उत्पन्न होते हैं और वहाँ हीनश्रेणीके देव न बनकर प्रायः ऊँचे दर्जेके देव ही नहीं बनते बल्कि देवेन्द्रके पदकको प्राप्त करते हैं और अणिमा - महिमादि आठ दिव्य शक्तियों के लाभसे तथा अपने अंगों के दिव्य संगठनसे सदा सन्तुष्ट रहकर सातिशय शोभासे सम्पन्न हुए देव-देवांगनाओंकी गोष्ठीमें चिरकालतक रमे रहते है— हजारों वर्षों तक ऊँचे दर्जेके लौकिक आनन्दका उपभोग करते हैं । अणिमादि आठ दिव्य शक्तियोंके स्वरूपादिका वर्णन आगे ६३ वीं कारिकाकी व्याख्यामें दिया गया है । इसतरह यह दूसरी विशिष्टावस्थाका उल्लेख है ।
नव-निधि- सप्तद्वय-रत्नाधीशाः सर्वभूमि-पतयश्चक्रम् | वर्तयितु ं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः चत्र - मौलि-शेखर - चरणाः ॥३८ 'जो निर्मल सम्यग्दर्शनके धारक हैं वे नव-निधियों तथा चौदह रत्नोंके स्वामी और सर्व भूमिके षट्खण्ड पृथ्वीके - अधिपति होते हुए चक्रको — सुदर्शनचक्र नामके आयुधरत्नको प्रवर्तित
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