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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ भी-नरक-तिर्यंच गतिको तथा ( मनुष्यगतिमें ) नपुंसक और स्त्रीकी पर्यायको प्राप्त नहीं होते और न (भवान्तरमें) निंद्य कुलको, अंगोंकी विकलताको, अल्पायुको तथा दरिद्रताको सम्पत्तिहीनता या निर्धनताको-ही प्राप्त होते हैं। अर्थात् निर्मल सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके अनन्तर और उसकी स्थिति रहते हुए उनसे ऐसे कोई कर्म नहीं बनते जो नरक-तिर्यच आदि पर्यायोंके बन्धके कारण हो और जिनके फलस्वरूप उन्हें नियमतः उक्त पर्यायों अथवा उनमेंसे किमीको प्राप्त करना पड़े।'
व्याख्या-यह कथन उन सम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षासे है जो सम्यग्दशनकी उत्पत्तिके पूर्व अबद्धायुष्क रहे हो-नरक-तिर्यचजैसी आयुका बन्ध न कर चुके हों अथवा सम्यक्त्वकालमें ही जिन्होंने आयु-कर्मका बन्ध किया हो; क्योंकि किसी भी प्रकारका
आयु-कर्मका बन्ध एक बार होकर फिर छूटता नहीं और न उसमें परस्थान-संक्रमण ही होता है । ऐसी हालतमें जो लोग सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पूर्व अथवा उसकी सना न रहने पर नरकायु या तिथंचायुका बन्ध कर चुके हों उनकी दशा दूसरी हैउनसे इस कथनका सम्बन्ध नहीं हैं-, वे मरकर नरक या तिर्यंचगतिको जरूर प्राप्त करेंगे । हाँ, बद्धायुष्क होनेके बाद उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शनके प्रभावसे उनकी स्थितिमें कुछ सुधार जरूर हो जायगा; जैसे सप्तमादि नरकोंकी आयु बांधनेवाले प्रथम नरकमें ही जायेंगे-उससे आगे नहीं-और स्थावर, विकलत्रयादि रूप तियेचायुका बन्ध करनेवाले स्थावर तथा
श्रीचामुण्डरायने चारित्रसारमें इस कारिकाको उद्धृत करते हुए 'उक्तञ्च अबद्धायुष्कविषये' इस वाक्य-द्वारा इसे अवद्धायुष्कसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रकट किया है।
* दुर्गतावायुषो बन्धे सम्यक्त्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यल्पतरा स्थितिः ।।