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कारिका ३४-३५] सम्यग्दर्शन-माहात्म्य तकको सम्यग्दर्शनका पात्र बतलाया गया है (का० २८)। ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि हीनसे हीन जाति-कुलवाला गृहस्थ भी जो सम्यग्दृष्टि है वह उस उच्चसे उच्च जाति-कुलवाले मुनिसे भी ऊँचे दर्जे पर है जो शास्त्रोंका बहुत कुछ पाठी तथा बाह्याचारमें निपुण होते हुए भी मिथ्यादृष्टि है-द्रव्यलिङ्गी है। इस दृष्टि से भी ज्ञान-चारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्टता स्पष्ट है।
श्रेय-अश्रेयका अटल नियम न सम्यक्त्व-समं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व-समं नाऽन्यत्तनूभृताम् ॥३४॥
'तीनों कालों और तीनों लोकोंमें अन्य कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सम्यक्त्वके समान-सम्यग्दर्शनके सदृश—देहधारियोंके लिये श्रेय रूप हो-उनका कल्याण कर सके, और न ऐसी ही कोई अन्य वस्तु है जो मिथ्यात्वके समान अश्रेयरूप हो-उनकां अकल्याण कर सके।'
व्याख्या--यहाँ तीनों कालों और तीनों लोकोंकी दृष्टिसे संसारी जीवोंके हित-अहितका विचार करते हुए बतलाया गया है कि उनके लिये सदा एवं सर्वत्र सम्यग्दर्शन सबसे अधिक हित रूप है और मिथ्यात्व सबसे अधिक अहितरूप है । इससे सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्टता एवं उपादेयता और भी स्पष्ट हो जाती है।
सम्यग्दर्शन-माहात्म्य सम्यग्दर्शनशुद्धा नारक-तिर्यङ्-नपुंसक-स्त्रीत्वानि । दुष्कुल-विकृताऽल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाऽप्यप्रतिकाः।३५ ___ 'जो (अबद्वायुष्क) सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हैं जिनका आत्मा (प्रायु कर्मका बन्ध होनेके पूर्व) निर्मल सम्यग्दर्शनका धारक है-वे अवती होते हुए भी-अहिंसादि व्रतों से किसी भी प्रतका पालन न करते हुए