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समीचीन-धर्मशास्त्र
(ङ) 'मौनं भोजनवेलायां', 'मांसरक्ताद्रचर्मास्थि', 'स्थूलाः सूक्ष्मास्तथा जीवाः' नामके ७३, ७५ और १०१ नम्बरवाले ये तीनों पद्य पूज्यपादकृत उस उपासकाचारके पद्य हैं जिसकी जाँचका लेख मैंने जैनहितैपी भाग १५ के १२ वें अंकमें प्रकाशित कराया था। उसमें ये पद्य क्रमशः नम्बर २६, २८ तथा ११ पर दर्ज हैं। यहाँ ग्रन्थके साहित्य-सन्दर्भादिसे इनका भी कोई मेल नहीं और ये खासे असम्बद्ध मालूम होते हैं।
का लेख मैंने जाकृत उस उपाय और १००
__ ऐसी ही हालत दूसरे पद्योंकी है और वे कदापि मूलग्रन्थके अंग नहीं हो सकते । उन्हें भी, उक्त पद्योंकी तरह, किसी समय किसी व्यक्तिने, अपनी याददाश्त आदिके लिये, टीका-टिप्पणीके तौर पर उद्धत किया है और बादको, उन टीका-टिप्पणवाली प्रतियोंपरसे मूल ग्रन्थकी नकल उतारते समय, लेखकोंकी असावधानी और नासमझीसे वे मूलग्रन्थका ही एक बेढंगा अथवा बेडौल अंग बना दिये गये हैं। सच है 'मुर्दा बदस्त जिन्दा ख्वाह गाड़ो या कि फूको ।' शास्त्र हमारे कुछ कह नहीं सकते, उन्हें कोई तोड़ो या मरोड़ो, उनकी कलवरवृद्धि करो अथवा उन्हें तनुक्षीण बनाओ, यह सब लेखकोंके हाथका खेल और उन्हींकी करतूत है । इन बुद्ध अथवा नासमझ लेखकोंकी बदौलत ग्रन्थोंकी कितनी मिट्टी खराब हुई है उसका अनुमान तक भी नहीं हो सकता । ग्रन्थोंकी इस खराबीसे कितनी ही ग़लतफहमियाँ फैल चुकी हैं और यथार्थ-वस्तुस्थितिको मालूम करने में बड़ी ही दिक्कतें आ रही हैं । श्रुतसागरसूरिको भी शायद ग्रन्थकी कोई ऐसी ही प्रति उपलब्ध हुई है और उन्होंने उस परसे 'एकादशके' आदि उन चार पद्योंको स्वामी समन्तभद्र-द्वारा ही निर्मित समझ लिया है जो 'यहतो मुनिवनमित्वा' नामके १४७ वें पद्यके बाद उक्त पहली मूल प्रतिमें पाये जाते हैं । यही वजह है कि उन्होंने 'षट्