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समीचीन-धर्मशास्त्र प्राप्त हो जाते हैं जो कारणसे कार्यादिकका सर्वथा भेद ही नियत मानते हैं अथवा यह स्वीकार करते हैं कि कारण-कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ही हैं-एक ही हैं-वे निर्मल तथा विशालकीर्तिसे युक्त अतिप्रसिद्ध योगिराज स्वामी समन्तभद्र सदा जयवन्त रहें-अपने प्रवचनप्रभावसे बराबर लोकहृदयोंको प्रभावित करते रहें।' वह पद्य इस प्रकार हैकार्यादेर्भेद एव स्फुटमिह नियतः सर्वथाकारणादेरित्यायेकान्तवादोद्धततर-मतयः शान्ततामाश्रयन्ति । प्रायो यस्योपदेशादविघटितनयान्मानमूलादलंध्यात् स्वामी जीयात्स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलङ्कोरुकीर्तिः ॥
इसी तरह विक्रमकी ७वीं शताब्दीके मातिशय विद्वान् श्रीअकलंकदेव जैसे महर्द्धिक प्राचार्य ने अपनी अष्टशती ( देवागमविवृत्ति ) में समन्तभद्रको 'भव्यैकलोकनयन' -भव्य जीवोंके हृदयान्धकारको दूर करके अन्तःप्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलाने वाला अद्वितीय सूर्य--और 'स्याद्वादमार्गका पालक (संरक्षक )' बतलाके हुए, यह भी लिखा है कि-'उन्होंने सम्पूर्ण पदार्थ-तत्त्वोंको अपना विपय करनेवाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधितीर्थको, इस कलिकालमें, भव्यजीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिये प्रभावित किया है-उसके प्रभावको सर्वत्र व्याप्त किया है-और ऐसा लिखकर उन्हें बारंबार नमस्कार किया है
तीर्थं सर्वपदार्थ-तत्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदधेभव्यानामकलङ्क-भावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्यसमन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः सन्ततम् कृत्वा वित्रियते स्तवो भगवतां देवागमस्तस्कृतिः॥