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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० १ आती हैं । इसी तरह निमित्तादि श्रुतज्ञान-द्वारा चन्द्र-सूर्यग्रहणादि जैसी भविष्यकी घटनाओंका भी सच्चा प्रतिभास हुया करता है। जब लौकिक दर्पणों और स्मृति आदि क्षायोपशमिक ज्ञानदर्पणोंका ऐसा हाल है तब केवलज्ञान-जैसे अलौकिक दर्पणकी तो बात ही क्या है ? उस सर्वातिशायी ज्ञानदर्पणमें अलोकसहित तीनों लोकोंके वे सभी पदार्थ प्रतिभासित होते हैं जो 'ज्ञेय' कहलाते हैं-चाहे वे वर्तमान हों या अवर्तमान । क्योंकि ज्ञेय वही कहलाता है जो ज्ञानका विपय होता है-ज्ञान जिसे जानता है। ज्ञानमें लोक-अलोकके सभी ज्ञेय पदार्थों को जाननेकी शक्ति है, वह तभी तक उन्हें अपने पूर्णरूपमें नहीं जान पाता जब तक उसपर पड़े हुए आवरणादि प्रतिवन्ध सर्वथा दूर होकर वह शक्ति पूर्णतः विकसित नहीं हो जाती। ज्ञान-शक्तिके पूर्णविकसित और चरितार्थ होने में बाधक कारण हैं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चार घातिया कर्म । इन चारों घातिया कर्माकी सत्ता जब आत्मामें नहीं रहती तब उसमें उस अप्रतिहतशक्ति ज्ञान-ज्योतिका उदय होता है जिसे लोक-अलोकके सभी ज्ञेय पदार्थोको अपना विषय करनेस फिर कोई रोक नहीं सकता।
जिस प्रकार यह नहीं हो सकता कि दाहक-स्वभाव अग्नि मौजूद हो, दाह्य-इन्धन भी मौजूद हो, उसे दहन करनेमें अग्निके लिए कोई प्रकारका प्रतिबन्ध भी न हो और फिर भी वह अग्नि उस दाह्यकी दाहक न हो; उसी प्रकार यह भी नहीं हो सकता कि उक्त अप्रतिहत-ज्ञानज्योतिका धारक कोई केवलज्ञानी हो और वह किसी भी ज्ञेयके विषयमें अज्ञानी रह सके। इसी आशयको श्रीविद्यानन्दस्वामीने अपनी अष्टसहस्रीमें, जो कि समन्तभद्रकृत-आप्तमीमांसाकी टीका है, निम्न पुरातन वाक्यद्वारा व्यक्त किया है