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कारिका ८-६ ]
आगम-शास्त्र-लक्षण
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कोई रागभाव नहीं होता और न अपना कोई निजी प्रयोजन ही होता है-उसकी वह सब प्रवृत्ति स्वभावत से परोपकारार्थ होती है
-उसी प्रकार वीतराग आप्तके हितोपदेश एवं श्रागम-प्रणयनका रहस्य है— उसमें वैसे किसी रागभाव या आत्मप्रयोजनकी आवश्यकता नहीं, वह 'तीर्थंकरप्रकृति' नामकर्मके उदयरूप निमित्तको पाकर तथा भव्यजीवोंके पुण्योदय एवं प्रश्नानुरोधके वश स्वतः प्रवृत्त होता है ।
आगे सम्यग्दर्शन के विषयभूत परमार्थ 'आगम' का लक्षण प्रतिपादन करते हैं
आगम-शास्त्र-लक्षरण
प्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत सार्व शास्त्रं कापथ - घट्टनम् ॥ ६ ॥
'जो आप्तोपज्ञ हो— प्राप्त के द्वारा प्रथमत: ज्ञात होकर उपदिष्ट हुआ हो, अनुल्लंघ्य हो - उल्लंघनीय अथवा खण्डनीय न होकर ग्राह्य हो, दृष्ट (प्रत्यक्ष ) और इष्ट ( अनुमानादि विषयक स्वसम्मत सिद्धान्त ) का विरोधक न हो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंमे जिसमैं कोई बाधा न आती हो और न पूर्वापरका विरोध ही पाया जाता हो, तत्त्वोपदेशका कर्ता हो - वस्तुकं यथार्थ स्वरूपका प्रतिपादक हो, सबके लिये हितरूप हो और कुमार्गका निराकरण करनेवाला हो, उसे शास्त्र - परमार्थ आगम कहते हैं ।
व्याख्या -यहाँ आगम- शास्त्र के छह विशेषणदि ये गये हैं, जिनमें 'आप्तोपज्ञ' विशेषरण सर्वोपरि मुख्य है और इस बातको सूचित करता है कि आगम आप्तपुरुषके द्वारा प्रथमतः ज्ञात हो - कर उपदिष्ट होता है । आप्तपुरुष सर्वज्ञ होनेसे आगम-विषयका पूर्ण प्रामाणिक ज्ञान रखता है और राग-द्वेषादि सम्पूर्ण दोषोंसे रहित होनेके कारण उसके द्वारा सत्यता एवं यथार्थताके विरुद्ध