________________
समीचीन-धर्मशाख हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्ररूप तीन रत्न। जो शारीर इन गुणोंसे पवित्र है-इन गुणोंका धारक आत्मा जिस शरीरमें वास करता है-उस शरीर व शरीरधारीको जो कोई शरीरकी स्वाभाविक अपवित्रता अथवा किसी जाति-वर्गकी विशेषताके कारण घणाकी दृष्टिसे देखता है और गुणोंमें प्रीतिको भुला देता है वह दृष्टि-विकारसे युक्त है और इसलिये प्रकृत अंगका पात्र नहीं । इस अंगके धारकमें गुणप्रीतिके साथ अग्लानिका होना स्वाभाविक है-वह किसी शारीरिक अपवित्रताको लेकर या जाति-वर्ग-विशेषके चक्करमें पड़कर किसी रत्नत्रयधारी अथवा सम्यग्दर्शनादि-गुणविशिष्ट धर्मात्माकी अवज्ञामें कभी प्रवृत्त नहीं होता।
___ अमूढदृष्टि अंगका लक्षण कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः। असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढादृष्टिरुच्यते ॥१४॥ 'दुःखोंके मार्गस्वरूप कुमार्गमें-भवभ्रमण के हेतुभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रमें-तथा कुमार्गस्थितमें-मिथ्यादर्शनादिके धारक तथा प्ररूपक कुदेवादिकोंमें--जो असम्मति हैमनसे उन्हें कल्याण का साधन न मानना है-असम्पृक्ति है-काय की किसी चेष्टासे उनकी श्रेय:साधन-जैसी प्रशंसा न करना है-और अनुत्कीर्ति है-वचनसे उनकी आत्मकल्याण-साधनादिके रूपमें स्तुति न करना है---उसे 'अमूढदृष्टि' अंग कहते हैं।' ___ व्याख्या-या दुःखोंके उपायभूत जिस कुमार्गका उल्लेख है वह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप है, जिसे प्रन्थकी तीसरी कारिकामें 'भवन्ति भव-पद्धतिः' वाक्यके द्वारा संसार-दुःखोंका हेतुभूत वह कुमार्ग सूचित किया है जो सम्बन्दशनादिरूप सन्मार्गके विपरीत है । ऐसे कुमार्गकी मन-वचन