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समीचीन-धर्मशाल
[१०१ कि सफलना ही नहीं मिलती। सफलताके लिये धर्मके उस अंगमें जिससे कोई चलायमान हो रहा हो स्वयं दक्ष होनेकी और साथ ही यह जाननेकी जरूरत है कि उसके चलायमान होनेका कारण क्या है और उसे कैसे दूर किया जा सकता है।
वात्सल्याङ्ग-लक्षण म्वयथ्यान्प्रति सद्भाव-सनाथाऽपेतकैतवा । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यममिलप्यते ॥१७॥
'स्वधर्मसमाजके सदस्यों--सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप प्रात्मीय-धमके मानने तथा पालनेवाले साधर्मीजनों के प्रति सद्भावसहित---मैत्री, प्रमोद, सेवा तथा परोपकारादिके उत्तम भावको लिये हुए---और कपटरहित जो यथायोग्य प्रतिपत्ति है--यथोचित मादर-सत्काररूप एवं प्रेममय प्रवृत्ति है--उसे 'वात्सल्य' अंग कहते हैं। ___ व्याख्या-इस अंगकी सार्थकताके लिये साधर्मी जनोंके साथ जा आदर-सत्काररूप प्रवृत्ति की जाए उसमें तीन बातोंको खास तोरसे लक्षम रखनेकी ज़रूरत है, एक तो यह कि वह सद्भावपूर्वक हो--लौकिक लाभादिकी किसी दृष्टिको साथमें लिये हुए न होकर मच्चे धर्मप्रेमसे प्रेरित हो । दूसरी यह कि, उसमें कपटमायाचार अथवा नुमाइश-दिखावट जैसी चीजको कोई स्थान न हो। और तीसरी यह कि वह 'यथायोग्य हो-जो जिन गुणोंका पात्र अथवा जिस पदके योग्य हो उसके अनुरूप ही वह आदर-सत्काररूप प्रवृत्ति होनी चाहिये, ऐसा न होना चाहिये कि धनादिककी किसी बाह्य-दृष्टिके कारण कम पात्र व्यक्ति तो अधिक आदर-सत्कारको और अधिक पात्र व्यक्ति कम आदरसत्कारको प्राप्त होवे।