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कारिका २५] स्मय-लक्षण और मद-दोष और 'पाषण्डिमोहनं' पदमें पड़ा हुआ पाषण्डिन शब्द अनर्थक और असम्बद्ध ठहरे; क्योंकि तब उस पदका यह अर्थ हो जाता है कि-धूतॊके विपयमें मूढ होना अर्थात् जो धूर्त नहीं हैं उन्हें धूर्त समझना और वैसा समझकर उनके साथ आदर-सत्कारका व्यवहार करना । और यह अर्थ किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता।
धर्मके अंगभूत सम्यग्दर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उसे म्मयसे रहित बतलाया है । वह ‘स्मय' क्या वस्तु है, इसका म्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी स्वयं लिखते हैं---
स्मय-लक्षण और मद-दोष बानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥२५॥
'ज्ञान-विद्या-कला, पूजा--प्रादर-सत्कार-प्रतिष्ठा-यश:-कीति, कुल ----पितृकुल-गुरुकुलादिक, जाति---ब्राह्मण-क्षत्रियादिक, बलशक्ति-सामर्थ्य अथवा जन-धन-वचन-काय-मंत्र-सेनाबलादिक, ऋद्धि-- अगिमादिक ऋद्धि अथवा लौकिक विति और पुत्र-पौत्रादिक-सम्पत्ति, नप ----अनगनादिरूप-तपश्चर्या तथा योग-माधना, और वपु-शोभनाहति तथा सौंदर्यादि-गुण-विशिष्ट दारीर; इन आठोंको आश्रित करके ---इनमेंगे किसीका भी प्राश्रय-आधार लेकर-जो मान (गर्व) करना है उमे गतम्मय आप्रपुरुष 'स्मय' छार्थात मद कहते हैं।
व्याख्या-ज्ञानादि .स्प अाभयके भेदसे मदके ज्ञानमद, पृजामद, फुलमद, जातिमद, बलमद, ऋद्धिमद, तपमद और शरीरमद पस बाट मंद होते हैं-मद के स्थूलरूपसे यह आठ प्रकार है । सूक्ष्मरूपसे अथवा विस्तार की सियादि देखा जाय नो इनमेंस प्रत्यव के विषय-भेदको लेकर अनेकानेक भेद बैठते हैं; जमे ज्ञान के विपन सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण'. छन्द, अलंकार,