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कारिका २६-२७]
मद-दोष परिहार
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गही; और इसलिये जो गुरणी धर्मात्माकी श्रवज्ञा करता है वह अपने ही गुण-धर्मकी अवज्ञा करता है, यह सुनिश्चित है ।'
व्याख्या - जो अहंकारके वशमें अन्धा होकर दूसरे धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको अपसेसे कुल, जाति आदिमं हीन समझता हुआ उनका तिरस्कार करता है— उनकी उस कुल, जाति, गरीबी, कमजोरी या संस्कृति आदिकी बातको लेकर उनकी अवज्ञाअवमानना करता है अथवा उनके किसी धर्माधिकारमें RTET डालता है - वह भूल से अपने ही धर्मका तिरस्कार कर बैठता है । फलतः उसके धर्मकी स्थिति बिगड़ जाती हैं और भविष्य में उसके लिये उस धर्मकी पुनः प्राप्ति अति दुर्लभ हो जाती है। यही इस मपरिणतिका सबसे बड़ा दोष है और इसलिये सम्यष्टिको आत्मपतन के हेतुभूत इस दोपसे सदा दूर रहना चाहिये । मद-दोष परिहार
उक्त मद-दोष किस प्रकारके विचारों द्वारा दूर किया जा सकता है, इस विषयका तीन कारिकाओं में दिशा-बोध कराते हुए स्वामीजी लिखते हैं
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यदि पाप-निरोधो ऽन्यसन्यदा किं प्रयोजनम् । अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ||२७||
'यदि ( किसीके पास ) पापनिरोध है - पापके श्रस्रवको रोकने वाली सम्यग्दर्शनादि - रत्नत्रयधर्मरूप निधि मौजूद है तो फिर अन्य सम्पत्तिसे— सम्यग्दर्शनादिसे भिन्न दूसरी कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है ? – उससे आत्माका कौनसा प्रयोजन सध सकता है ? कोई भी नहीं । और यदि पासमें पापास्रव हैंमिथ्यादर्शनादिरूप धर्म में प्रवृत्तिके कारण आत्मामें सदा पापका श्रास्रव बना हुआ है तो फिर अन्य सम्पत्तिसे--मात्र कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी उक्त सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है ? वह आत्माका क्या कार्य सिद्ध कर सकती है ? कुछ भी नहीं ।"