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६२ समीचीन-धर्मशास्त्र
[अ०१ गणित, निमित्त, वैद्यक, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र, भू-गर्भ, शिल्प-कला, व्योमविद्या और पदार्थ-विज्ञान आदि अनेक हैं, उनमेंमे किसी भी विषयको लेकर गर्व करना वह उस विषयके ज्ञानका मद है। बलमें मनोबल, वचनबल, कायबल, धनबल, जनबल, सनाबल, अस्त्र-शस्त्रबल, मित्रबल आदि अनेक बल शामिल हैं और उतने ही प्रकारकं बलमद हो जाते हैं। ऐसी ही स्थिति ऋद्धि आदि दूसरे मदोंकी है-उनके सैकड़ों भेद हैं । मद-मान-अहंकार अात्मा के पतनका कारण है और इसलिये उसकी संगनि सम्यग्दर्शनके साथ नहीं बैठती, जो कि आत्माके उत्थान एवं विकासका कारण है। ___इस मदकी मदिराका पानकर मनुष्य कभी-कभी इतना उन्मत्त (पागल) और विवेकशून्य हो जाता है कि उसे आत्मा तथा
आत्म-धर्मकी कोई सुधि ही नहीं रहती और वह अपनेसे हीन कुल-जाति अथवा ज्ञानादिकमें न्यून धार्मिक व्यक्तियोंका तिरस्कार तक कर बैठता है । यह एक बड़ा भारी दोष है। इस दोष और उसके भयंकर परिणामको सुझाते हुए स्वामीजीने जो व्ववस्था दी है वह इस प्रकार हैस्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकविना ॥२६॥
'जो गर्वितचित्त हुआ घमण्डमें श्राकर-कुल-जाति आदि विषयक किसी भी प्रकारके मदके वशीभूत होकर-सम्यग्दर्शनादिरूप धर्ममें स्थित अन्य धार्मिकोंको तिरस्कृत करता है उनकी अवज्ञाअवहेलना करता है-वह (वस्तुतः) आत्मीय धमको---मम्यग्दर्शनादिरूप अपने प्रात्म-धर्मको-ही तिरस्कृत करता है, उसकी अवज्ञा प्रवहेलना करता है; क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्मका आस्तित्व कहीं भी नहीं पाया जाता-गुणीके अभावमें गुणका पृथक् कोई सद्भाव ही