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कारिका २६-३०] सम्यग्दृष्टिका विशेष कर्तव्य काम करने वाला चाण्डाल ही नहीं बल्कि वह चाण्डाल भी सम्यग्दर्शनादि धर्मका पात्र है और उस धर्म-सम्पत्तिसे युक्त होने पर 'देव' कहलाये जानेके योग्य है जो चाण्डालके देहसे उत्पन्न हुआ है अर्थात् जन्म या जातिसे चाण्डाल है।
वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् । काऽपि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥२६॥
“(मनुष्य तो मनुष्य) एक कुना भी धर्मके प्रतापसे-सम्यग्दर्शनादिके माहात्म्यसे--स्वर्गादिमें जाकर देव बन जाता है, और पापके प्रभावसेमिथ्यादर्शनादिके कारण-एक देव भी कुत्तेका जन्म ग्रहण करता है । धर्मके प्रसादसे तो देहधारियोंको दूसरी अनिर्वचनीय सम्पत्तककी प्राप्ति हो सकती है । (ऐसी हालतमें कुल, जाति तथा ऐश्वर्यादिमे हीन धर्मात्मा लोग कदापि तिरस्कारके योग्य नहीं होते।)'
व्याख्या-यहाँ धर्म और धर्मके फलका अधिकारी मनुष्य या देव ही नहीं बल्कि कुत्ता-जैसा तिर्यंचप्राणी भी होता है, यह स्पष्ट बतलाकर फलतः इस बातकी घोपणा की गई है कि ऐसी हालतमें कुल, जाति तथा ऐश्वर्यादिसे हीन धर्मात्मा लोग कदापि तिरस्कारके योग्य नहीं होते।
इन सब बातोंको लक्ष्यमें रखते हुए स्वामीजी सम्यग्दृष्टिके विशेष कर्तव्यका निर्देश करते हुए लिखते हैं :
सम्यग्दृष्टिका विशेष कर्तव्य भयाऽऽशा-स्नेह-लोभाच्च कुदेवाऽऽगम-लिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्यः शुद्धदृष्टयः ॥३०॥
'शुद्ध सम्यग्दृष्टियोंको चाहिये कि वे (श्रद्धा अथवा मूढदृष्टिसे ही नहीं किन्तु) भयसे-लौकिक अनिष्टकी सम्भावनाको लेकर उससे बचनेके लिये-आशासे-भविष्यकी किसी इच्छापूर्तिको ध्यानमें रखकरस्नेहसे-लौकिक प्रेमके वश होकर तथा लोभसे-धनादिकका कोई